छम्मक्छल्लो तब मिडल स्कूल में पढ़ती थी. तब एक ही स्कूल हुआ करता था और अधिकारी से लेकर चपरासी तक सभी के बच्चे उसी स्कूल में पढ़ते थे. उस स्कूल में एक टीचर आईं- बीबी शहजादी. वे वहां लड़कियों को उर्दू पढाने आई थीं. उर्दू पढ़नेवाली लड़कियां उन्हें उस्तानी कहतीं और हम सब उस्तानी जी. तब छम्मक्छल्लो को लगता था कि उनका नाम ही उस्तानी जी है. उसे बहुत बाद में पता लगा कि उनका नाम बीबी शहजादी है.
उसी स्कूल में दो और टीचर थीं. एक कृष्ण की उपासिका थीं और दूसरी राम की. दोनों के क्वार्टर्स एक दूसरे से सटे हुए थे. उसतानी जी को भी स्कूल में ही क्वार्टर मिला था, लेकिन वह थोड़ी दूर पर उनके क्वार्टरों से बिलकुल उलटी दिशा में था. इसलिए राम और कृष्ण की इन उपासिकाओं के लिए कोई संकट नहीं आया था.
स्कूल में सरस्वती पूजा खूब धूम धाम से होती. स्कूल में ही प्रसाद के लिए चूरन और बुंदिया बनते. पूजा के बाद सभी टीचर्स को ज़रा अच्छी मात्रा मैं अलग से प्रसाद मिलता. ज़ाहिर था कि एक हिस्सा उस्तानी जी के लिए भी होता. छम्मक्छल्लो को बड़ी हैरानी होती कि उस्तानी जी बड़े प्रेम भाव से उस प्रसाद को न केवल अपने यहाँ रखतीं, बल्कि उसे खातीं भी और अपनी शागिर्दों को खिलाती भी.
मगर उस्तानी जी या उनकी शागिर्दों के यहाँ से आई कोई भी चीज़ खाने की तो दूर, उसे छुआ भी नहीं जाता. खुद उस्तानी जी उसे किसी को भी नहीं देतीं. एक अलिखित सा व्यवहार था कि सभी हिन्दू घरों का खाना उनके यहाँ जाएगा, लेकिन उनके या अन्य मुसलमानों के यहाँ का खाना हिन्दुओं के घरों में देना तो दूर, उसके बारे में सोचा भी नहीं जा सकता था.
छम्मक्छल्लो के लिए बचपन से यह परेशानी का बायस बनता कि लोग उस्तानी जी के यहाँ का क्यों नहींं खाते. एक आम बच्चे की तरह उसने भी अपनी माँ से इस बाबत पूछा. सपाट जवाब मिला, "क्योंकि वे मुसलमान हैं." छम्मक्छल्लो ने फिर तर्क किया,"लेकिन वे तो हमारे घर का खाती हैं." "वे खा सकती हैं, हम नहीं." "मगर क्यों?" फिर वही जवाब कि "वे मुसलमान हैं." छम्मक्छल्लो ने फिर से कहा "तो क्या इसका मतलब कि हम हिन्दू बड़े हैं?" "हां." "मगर कैसे? वे तो हमारा खा लेते हैं तो कायदे से वे ही हमसे बड़े हुए." "बहस नहीं." तब छम्मक्छल्लो सचमुच में छोटी थी, मगर यह उलटबांसी उसे तब भी समझ नहीं आई थी, आज भी नहीं आती है. एक ही समय में एक धर्म बड़ा और एक छोटा कैसे हो जाता है? क्या अपनी उम्र से? यदि यह भी मान लिया जाए कि हिन्दू धर्म इस्लाम से बड़ा है तो बड़े को तो और भी सहिष्णु होना चाहिए. वै़से भी हम हिन्दू अपने-आपको बहुत सहिष्णु समझते हैं. ऐसे में छम्मक्छल्लो को आज तक समझ में नहीं आया कि एक मुसलमान एक हिन्दू के घर का तो खा-पी सकता है, मगर एक हिन्दू एक मुसलमान के घर का क्यों खा-पी नहीं सकता? मुसलमान की तो छोडिये, ये हिन्दू अपने ही हिन्दुओं से भेद-भाव करते है और तब वे धर्म की सीढी से उतरकर जाति के छज्जे पर जा बैठते हैं. छम्मक्छल्लो के स्कूल की जो राम-कृष्ण भक्त अध्यापिकाएं थीं, वे किसी के यहाँ का कुछ नहीं खाती-पीतीं. वज़ह कि वे अधिक भक्त हैं इसलिए किसी का छुआ नहीं खातीं. लेकिन वे यह अपेक्षा ज़रूर रखती थीं कि लोग उनके यहां की चीजें न केवल खाएं, बल्कि उस पर अपनी पूरी श्रद्घा और आस्था भी व्यक्त करें, प्रसाद की तरह उसे ग्रहण करें. लोग-बाग़ करते भी, सिर्फ इसी एक आधार पर की वे दोनों बहुत बड़ी भक्तिन हैं. लेकिन छम्मक्छल्लो की परेशानी थी की वो जितनी बड़ी भक्त थीं, उतनी ही ज़्यादा कट्टर भी. तो क्या भक्ति कात्तारता को जन्म या बढावा देती है?
छम्मक्छल्लो के स्कूल में हर परीक्षा के समय पाक विज्ञान की भी परीक्षा होती थी, जिनमें लड़कियों को दिए गए मेनू के अनुसार चीजें बनाकर अध्यापिकाओं को टेस्ट करानी होती थीं. हालांकि यह अभिभावकों की नज़र में खाने-पीने का एक बहाना माना जाता और इसकी खूब आलोचना होती. मगर परीक्षा में पास करने के लिए इस परीक्षा में भी शामिल होना कटाई ज़रूरी था. सो सभी टीचर्स एक लम्बे टेबल पर बैठतीं थीं और उनके सामने स्कूल में लगे केले के पेडों से तोडे केले के पत्ते बिछा दिए जाते थे. सभी परीक्षार्ती उसी पत्ते पर अपनी बनाई हुई चीजें परसतीं. राम-कृष्ण भक्त टीचर्स के लिए भी पत्ते लगते, लेकिन वे न तो आतीं, न खातीं. लेकिन यह भी नहीं होता कि उनके नाम के पत्ते न लगें. तब तो अहम् पर चोट लगनेवाली बातें होतीं. इन पत्तों में भी एक पत्ता अलग से लगा होता, मुसलमान छात्राओं द्वारा बना कर लाइ गई चीजें इन्हीं पत्तों पर परोसी जातीं. इन्हें कोई भी नहीं खाता. इन पत्तों को उठा कर फिर से उसतानी जी के यहाँ भिजवा दिया जाता. उसतानी जी उन्हें अपनी छात्राओं में बाँट देतीं. यह भी तब किसी ने नहीं पूछा कि अगर आपको खाना ही नहीं है तो उनसे परीक्षा क्यों ले रही हैं? लेकिन नहीं, गलत कह गई, उनके यहां की चीजें टेस्ट करने के लिए उस्तानी जी से कहा जाता. वे चखती और अपनी सहमति-असहमति दर्ज करतीं और उस हिसाब से उस छात्रा को अंक मिलते.
छम्मक्छल्लो के पाठक कहते हैं कि हिन्दुओं की बुराई ही वह क्यों करती है? उन सबसे यह कहना चाहती है कि यह बुराई का वर्णन नहीं है, यह वे स्थितियां हैं जो किसी को भी अपने ही देश में, समाज में दोयम दर्जे का बनाती है. हिन्दू हिन्दुस्तान मैं हैं और बहुसंख्या में हैं, उस नाते उन्हें अपने में अहसास है की वे बड़े हैं. छम्मक्छल्लो का कहना है की अगर वे बड़े भाई है, तो बड़े भाई के कर्तव्य का पालन करें. बड़े भाई का कर्तव्य होता है कि वह्सभी के साथ प्रेम, मेल बना कर रखे न कि खुद भी नफ़रत का पाठ पढ़े और दूसरों को भी पढाएं. अगर वह ऐसा करता है तो किस बात का वह बड़ा भाई या किस लिए उसे श्रेष्ठ कहा जाये? दूसरी बात छम्मक्छल्लो खुद उस तथाकथित हिन्दू परिवार से है. तो अपने घर की बातें उसे दूसरों के घर से अधिक पता है. उसकी तो यही कोशिश होगी कि वह पहले अपने घर के जाले को साफ़ करे. छम्मक्छल्लो आज भी याद करती है तो उसे आर्श्चय होता है कि कैसे उस्तानी जी यह सब करते -करते वक़्त सामान्य बनी रहती थीं. छम्मक्छल्लो इस बात की कल्पना से ही घबरा जाती है कि कोई उससे इस तरह के भेद-भाव करे. वह तो उस जगह, उस घर जाना छोड़ देगी. मगर अपने ही घर और अपने ही देश में अपने ही लोगों द्वारा यह सब हो तो कोई कैसे सहे और क्यों सहे?
छम्मकछल्लो जी, पूरे देश को यही घुन लगी है। हम इस घुन से गिर जाएंगे। पर इसे न साफ करेंगे, बस औरों को गरियाएंगे।
ReplyDeleteIt is a harsh reality of this country, but don´t you think that things have got been changed?
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