छाम्माक्छाल्लो स्वभाव से ईश्वर विरोधी नही है. मगर जब धर्म के नाम पर वह ऎसी-वैसी हरक़त होते देखती है तब उसे धर्म के इन ठेकेदारों के प्रति घृणा होने लगती है. उसे लगाने लगता है कि वह क्यों ऎसी जगह आ कर अपना समय और मन खराब कर रही है.
बात बहुत पुरानी है. छाम्माक्छाल्लो के बचपन की. उसके घर के पास एक मंदिर था. अन्यों की तरह छाम्माक्छाल्लो भी कभी माँ के साथ तो कभी मोहल्ले की भाभियों, चाचियों के साथ वहां जाया करती थी. मंदिर छोटा था, मगर बहुत प्रसिद्द था. वहां हर आम मंदिर की तरह राम से लेकर शंकर, गणेश, हनुमान सभी की मूर्तियाँ थीं और सभी अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार सभी वहां जाते रहते थे. मंदिर में ही एक धर्मशाला भी थी, जिसमें शादी-ब्याह के अवसर पर मोहल्ले की बेटियों की बरात टिका करती थी. वहां एक कुँआ था, जिसमें से लोग अपने काम-काज के साथ-साथ पूजा-पाठ के लिए भी पानी भरते थे. मंदिर के अहाते में आम, अमरूद के पेड़ों के साथ-साथ गेंदा, गुलाब, बसंत मालती के फूल भी होते थे. श्रद्धालू इन फूलों से पूजा करते थे. कुल मिला कर माहौल बहुत अच्छा था.
वहां केवल एक ही कमी थी, मंदिर के पुजारी बहुत गांजा पीते थे और बहुत क्रोधी थे, क्रोध में आते तब बहुत गंदी-गंदी गालियाँ देते. मगर इसके अलावा और कुछ नहीं. कभी किसी ने उन्हें किसी भी लफडे में पड़ते नहीं देखा, कुछ गलत करते नहीं देखा.
जब बरात आती किसी की भी, महिलाओं का मंदिर जाना रुक जाता. बारातियों को जैसे जन्म सिद्ध अधिकार मिल जाता था बदतमीजी करने के लिए. जैसे ही किसी महिला को देखा नहीं, कि शुरू और अगर उनके साथ कोई लड़की हो तब तो उनकी बदतमीजी का कोई ठिकाना ही नहीं होता था. महिला, लड़की या उसके परिवार के लोग इसलिए बारातियों को कुछ कह नहीं पाते थे कि किसी की बेटी की शादी का सवाल होता. इसलिए यही बेहतर समझा जाता कि ऐसे वक़्त मंदिर न जाया जाये.
मंदिर में अक्सर राम चरित मानस का नौ दिनों तक चलनेवाला नवाह पाठ होता. बड़े पैमाने पर उसका आयोजन होता. शहर के सभी लोग उसमें अपना यथासम्भव योगदान देते. नवाह पाठ के लिए पंडितों की टीम होती जो बारी-बारी से नवाह पर बैठते. मुख्य पाठकर्ता मानस की चौपाई बोलते और पूरी टीम उसे दुहराती. इनके साथ -साथ शहर के अनेक स्त्री-पुरुष, बच्चे होते, जो मानस की चौपाई को दुहराते. शाम में किसी बाबा का प्रवचन होता जिसे सुनने के लिए भारी संख्या में स्त्री -पुरुष पहुंचते. इस पाठ या प्रवचन में न जाना जैसे इसका अपमान माना जाता और न जानेवालों को बड़ी हिकारत की नज़र से देखा जाता. छाम्माक्छाल्लो की माँ अपनी स्कूली व्यस्तता के कारण जाने से रह जातीं, जिसका उन्हें बड़ा मलाल होता. छाम्माक्छाल्लो भी कभी-कभी अपने मोहल्ले की चाचियों, भाभियों या हम उम्र के साथ निकल जातीं.
उस बार नवाह का आयोजन था. छाम्माक्छाल्लो अपनी एक सहेली के साथ नवाह में गई थी. बैठने से बेहतर था कि साथ-साथ मानस का पाठ कर लिया जाय. छाम्माक्छाल्लो और उसकी सहेली एक-एक मानस ले कर पाठ के लिए बैठ गई. आमने-सामने पंडितों की टोली थी. सामने एक ३०-३२ साल का भी पंडित था. वह पाठ करते-करते बार-बार छाम्माक्छाल्लो की सहेली की ओर देख लेता. उसकी नज़रों में कुछ सहजता न थी, इसे छामाक्छाल्लो उस छोटी सी उम्र में भी महसूस कर गई थी. (हमारे छेड़छाड़ वाली मानसिकता को सलाम) वह इधर-उधर देख रही थी कि तभी एक फूल उसकी सहेली के मानस पर आ कर गिरा. छाम्माक्छाल्लो चौंकी. उसे लग तो गया था कि यह उस पंडित का ही काम हो सकता है, मगर वह आश्वस्त नहीं थी. अब उसका मानस के पाठ में ध्यान नहीं रह गया था. वह बार-बार बेचैनी से इधर-उधर देख रही थी कि दूसरा फूल भी आकर गिरा. इस बार उसने उस पंडित को फूल फेकते हुए देख लिया था. बड़ी सफाई से उस पंडित ने मानस का पाठ करते-करते पूजा केफूलों में से एक फूल उठाकर उसकीसहेली की तरफ उछाल दिया था. तब लड़कियों को कहाँ यह सीख दी जाती थी कि कोई तुम्हारे साथ ऎसी हरक़त करे तो तुंरत उसकी पोल खोल दो. यहाँ तो उसे ही दोषी ठहराया जाने लगता है कि ज़रूर उसी ने कोई हरक़त की होगी, वरना इतनी लड़कियां, औरतें वहां हैं, किसी और के साथ तो ऎसी कोई बात नही हुई. वे दोनों बेहद डर गईं. उस पंडित को तो कुछ कहने की हमने हिम्मत थी नहीं, लिहाजा वहां से चुपचाप उठा कर वे दोनों आ गईं.
दूसरे दिन भी जाने पर वही खेल. अब उस पंडित की आन्खोंं में एक जबरदस्त गुंडई मुस्कान होती. वह किस्सी फिल्म के विलेन की तरह लगता. उसकी और देखने की हिम्मत न होती. जब कभी नज़र मिल जाती तो पाठ करते-करते भी उसके चहरे पर एक कमीनी मुस्कान तैर जाती. उस मुस्कान में इतनी अश्लीलता होती कि छाम्माक्छाल्लो सिहर उठी. आज भी उस नज़र को यद् करा के वह सिहर उठी है.
शाम में प्रवचन होता. एक बाबा जी थे, बड़े-बड़े बाल- भांग से चढी लाल-लाल अधखुली आँखें. वे दो-चार लाइन प्रवचन में कुछ बोलते, फिर कोई भजन या मानस की लाइन अपने हारमोनियम पर गाते और बेतरह झूमने लगते. उनके झूमने से उनके बाल भी बुरी तरह झूमते और. खूब देर तक झूमने के बाद वे एक झटके से सर उठाते, उनकी आँखें तब और भी लाल हो गई रहती, पान सेभरे मुंह से पीक भी निकल कर फ़ैल गई होती, स्त्रियाँ और पुरुषगन जय हो के नारे लगाने लगते.
इस तरह के प्रवचन या सत्संग में स्त्री और पुरुषों के बैठने की अलग-अलग जगह होती. उस रात छाम्माक्छाल्लो भी अपने मोहल्ले की चाची के साथ प्रवचन सुनने गई थी. बाबा जी का झूमना उसे बेहद असहज लग रहा था. कुछ देर बाद उसने लक्ष्य किया कि बाबा झूमने के बाद सर को झटका देने के बाद स्त्रियोवाले घेरे में एक ख़ास जगह पर देखते और वहां अपनी नज़रें स्थिर कर लेते. उनकी नज़रों का पीछा करने पर पता चला कि वहां मोहल्ले की एक नव विवाहिता और बेहद सुन्दर बहू बैठी है. अपनी उम्र, शादी आदि के हिसाब से उसने रंगीन साड़ी पहन रखी थी और थोडा मेक अप किया हुआ था. उस बाबा जी को किसी ने कुछ नहीं कहा, सब उनके प्रवचन पर लहालोट होते रहे, मगर उस बहू पर सबने लानते-मलामतें भेजनी शुरू कर दी कि क्या ज़रुरत थी ऎसी चटक-मटक साड़ी पहनने की, कि ठोर रांगेने की कि स्नो- पाउडर लगाने की.
यह हमारा धर्म है, जिसे बेहद सहिष्णु, बेहद पवित्र, बेहद ऊंचा माना जाता है. धर्म ज़रूर ऊंचा होगा, मगर धर्म के आसन पर बैठनेवाले ये तथाकथित लोग धर्म की आड़ में क्या-क्या गुल खिलाते हैं, इसे कौन देखेगा, कौन सोचेगा? बहू को तो बिना बोले फतवा मिल गया, छाम्माक्छाल्लो या उसकी सहेली उस पंडित के बारे में बोलती तो उसे भी यही सब सुनने को मिलता. इस गलीज हरक़त के खिलाफ क्या वे लोग बोलेंगे जो आज भी धर्म या देवी-देवता के नाम पर आक्रामक हो जाते हैं, क्योंकि आज भी यह सब मानसिकता नहीं बदली है और न बदली है छेड़छाड़ की प्रवृत्ति.
रीति नीति की क्या कहें धर्म बना व्यापार।
ReplyDeleteखड़ी जरूरत सामने इसमे करें सुधार।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
धर्म तो बहाना है,
ReplyDeleteरस कैसे भी पाना है।
आज धर्म का काम हितसाधन ही रह गया है। वे कैसे भी हों।
बस मंदिर में ही कहे जी, छेड़छाड़ तो भारतियों का जन्मसिद्ध अधिकार है.
ReplyDeleteKya likhane ki koshish kari hai?
ReplyDeleteSamajha nahin!!!
Hinduon ko kyon hamesha bura batate ho???
kitane Isai paadariyon ne rape kiya unake bare men nahin likahte??
मस्जिद, चर्च, मन्दिर में ही क्यों, हर जगह लंपट ही भरे पड़े हैं, चाहे ये फिल्म में काम करने वाले हों, नाटकों में, लेखक हों, दफ्तरो में हों, नक्सलवादी हत्यारे हों, वकील हों, डाक्टर हों, नेता हों, कहां पर लपंटता नहीं है? है कोई स्थान अछूता जहां के अनुभव आपके अनुभव से भिन्न हों?
ReplyDeleteनीचे दिये लिंक पर देखिये कि कैसे भोपाल स्थित चर्च में पादरी ने काम करने वाली लड़की का शोषण किया
http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/4300638.cms
देश भरा पड़ा है लंपटों से और हां चर्च गुरद्वारों व मजारों के बारे में आपका क्या ख्याल है..?
ReplyDeleteAapne bilkul sahi baat likhi hai, hamare pande pujari khud hi dharma bhrastha ho chuke hai, we hamara dharma kya sudharenge.
ReplyDeleteSantosh Kumar Singh, Ranchi
Mandir Dharmik Ashtha ke kendra hai, lekin dharma ki aar mein bahut sare anaitik karya bhi yahan hote hai, ise samay samay par ujagar karna hum sajak lolg ka farj banta hai,
ReplyDeleteKumar Krishnana, Ranchi
agree with u. ye purush ki pravriti hai (most of them) ye log sabhi jagah hai chahe mandir ho ya masjid, church ho ya gurudware
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