राजेन्द्र बाबू पढ़ने में बहुत तेज़ थे, इसलिए उनके बड़े भाई सहित हित-मित्रों की राय बनी की वे इंग्लॅण्ड जाकर वहाँ से आई सी एस की परीक्षा दें। घरवालों से छिपाकर तैयारी हो रही थी, कोट- पैंट सिलाए गए थे, मगर भेद खुल गया और उनकी दादी उन्हें घर पकड़कर ले आईं, क्योंकि तब विदेश जाना बहुत ग़लत माना जाता था। तब राजेन्द्र बाबू ने अपने लिए इंतज़ाम किए गए सभी कपडे व् पैसे अपने एक दूसरे मित्र को, जिनकी ऎसी कोई योजना नहीं थी, उन्हें दे दिए। वे मित्र आगे चलाकर पटना हाई कोर्ट के जज बने। वे थे- श्री सुखदेव प्रसाद वर्मा।
उन्हीं दिनों की एक मनोइरंजक घटना है। जब विदेश यात्रा की गुप-चुप तैयारी चल रही थी, तब राजेन्द्र बाबू अपने दो अन्य मित्रों के साथ कलकत्ता में घूमते-घामते किसी वृद्ध बंगाली ज्योतिषी के यहाँ पहुंचे। वे एक से बोले- "तुम्हारे भाग्य में विदेश यात्रा नही लिखा है।" सब हंस परे, क्योंकि वह मित्र धनी भी था और पारिवारिक विरोध भी नही था। राजेन्द्र बाबू से कहा की तुम्हारा जाना बही नहीं, २० साल बाद होगा और तीसरे को, जिसकी कुछ तैयारी नहीं थी, कहा की तुम्हें जल्द जाना होगा। तीनों ने इसे बकवास माना। मगर संयोग कहें की पहला मित्र वाकई नहीं जा सका। वह बंबई गया और वहा के समुद्र को dekh kar घबरा गया। (तब विदेश यात्रा समुद्र से होती थी) राजेन्द्र बाबू के बारे में कहा ही जा चुका है। लेकिन उस तीसरे का कार्यक्रम आनन्-फानन में बन गया। राजेन्द्र बाबू ने कभी उस व्यक्ति का नाम नहीं बताया। राजेन्द्र बाबू का जाना १९०७ के बदले १९२८ में हुआ, वकालत के सिलसिले में। १९२० में उन्होंने वकालत छोड़ दी थी, मगर अपने बुजुर्ग मित्र व् मुवक्किल हरिहर प्रसाद सिंह के कहने पर केवल उसी केस के लिए लादे। इसके बाद आजीवन कूई अन्य केस नहीं लिया।
१९२८ में इंग्लैंड जाने के लिए गर्म ऊनी कपडे के बंद गले के लंबे कोट, पतलून व् टोपियाँ सिलवाई गईं। कुछ ऊनी कपडे वे विलायत साथ ले गए सिलवाने के लिए। मगर विलायती दर्जी हिन्दुस्तानी कैसा तो सिल पाता। उसने जैसे सिले, राजेन्द्र बाबू ने पहन लिए। बटन टेढी लाइन में तनके थे, काज भी बन गए थे। राजेन्द्र बाबू ने मान लिया की इन्हें ही पहनना है। साथ के मित्रों, वकीलों ने आपत्ति की तो हंसते हुए बोले, " अंग्रेजों को देशी कोट में क्या पाता चलेगा की क्या टेढा है, क्या सीधा है। किसी ने अगर टोक भी दिया तो कहूंगा की यह भी नया फैशन है।
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