कपडों के मामले में राजेन्द्र बाबू का सदा से यही विचार रहा की कपडे स्वच्छ, आरामदेह व् शरीर की रक्षा करनेवाले हों। इससे अधिक ध्यान देने की ज़रूरत नहीं। इसलिये स्कूल कॉलेज जाते समय पाजामा और शेरावानी जैसा कुछ पहनते थे और घर पर धोती -कुर्ता। वकालत के समय भी यही ढर्रा रहा। खुले गले का कोट -पतलून कलकत्ता या पटना हाई कोर्ट में नहीं पहना। वकालत के लिए तय बेंड बांधते और गाउन पहनते। ताई का तो सवाल ही नहीं था। सरदी से बचाव के लिए बंद गले के लंबे कोट का व्यवहार करते रहे।
उदार तो इतने की कपडे ख़राब सिलने पर भी दर्जी से कुछ नहीं कहते, चुपचाप पहन लेते। सन १९४० से भी पहले की बात है। पटना खादी भंडार में रामदास प्रधान नाम के दर्जी काम करते थे। उनकी ज़बान जितनी तेज़ चलती, केंची की धार उससे भी अधिक तेज़ और बेलगाम रहती। नतीजा साफ़ था। कई बार ऐसा हुआ की कुरते की दोनों बाँहें न तो एक सी और न ही बराबर बनीं। किसी ने कहा की इनसे कपडे बिगाड़ने के पेसे वसूलने चाहिए। राजेन्द्र बाबू ने हंस कर कहा की "दूसरे तो इनका बनाया कपडा पहनते नहीं, अब अगर हम भी ना पहनें, तो यह दरजी क्या करेगा? चलो, लम्बी बांह को एक अधिक मोड़ देकर पहन लूंगा।"
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