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Wednesday, October 8, 2008

राष्ट्रपति भवन का शाही भोज और राजेन्द्र बाबू

कायस्थों में मांसाहार सदा से मान्य रहा है, मगर बचपन के बाद राजेन्द्र बाबू शाकाहारी ही बने रहे। शाकाहारी भोजन में भी सदा, तेल, घी, मिर्च मसाले से दूर। दूध इन्हे अति प्रिय था। गो सेवा संघ की स्थापना के बाद केवल गाय का दूध, दही, घी लेने का नियम बना लिया था। प्रायः शाम या तीसरे पहर नाश्ते में चने का भूंजा बहुत दिनों तक पसंद करते रहे, जो राष्ट्रपति भवन में भी चलता रहा- कभी कभार।
इन आदतों के कारण राष्ट्रपति भवन की बड़ी- बड़ी पार्टियों में भी उनका भोजन वही रहा। उनके लिए उनके निजी चौके से एक ही बार थाली आती। यानी वे दावत में शामिल तो होते थे, मगर दावत की कोई भी चीज़ नहीं खाते। केवल कभी-कभार अतिथि के सम्मान के लिए भोजन के अंत में कॉफी की प्याली मुंह से लगा लेते।
एक बार किसी देश के राजदूत का पत्र स्वीकार कर उन्हें मान्यता देन के लिए परम्परानुसार आयोजित होनेवाले छोटे से समारोह का अवसर था। परिचय पत्र प्रस्तुत करने के बाद, रिवाज़ के मुर्ताबिक, दरबार हॉल से राजदूत को कमरे में अपने साथ लिअवा कर राष्ट्रपति उनके साथ बातें करते और उन्हें चाय-नाश्ता कराते। चाय-पान कराके, राजदूत को विदा कराने के बाद राजेन्द्र बाबू आए और हंसते हुए कहा की आज वे अच्छी मुसीबत में फंस गए। कायदे के मुताबिक, अंत में पान की तश्तरी आई। राजदूत ने पान उठा लिया। उनके सम्मान के लिए उन्हें भी पान लेना पडा। पान चूंकि कोई विदेशी लेता नही, और वे भी नहीं लेते, इसलिए उगलदान रखने का ख्याल कभी आया नहीं। पान की पीक फेंकने की कोई सुविधा न देख, उन्हें उसे निगल जाना परा। बिचारे राजदूत को भी यही करना पडा। शायद वह यह जानता ही न हो की पान की पीक निकाल कर फेंक दी जाती है।

3 comments:

रंजन (Ranjan) said...

ये सादगी.. क्या बात थी राजेन्द्र बाबु में..

Shiv said...

रत्न थे देश के. राजेन्द्र बाबू सही मायनों में नेता थे.

हर्ष प्रसाद said...

कृपया राजेंद्र बाबू के बारे में और कुछ बतायें. हम जानने के बहुत इच्छुक हैं.