नाटक छलिया का आमंत्रण बहुत दिनों से था। सो कल छाम्मकछाल्लो कल इसे देखने गई। दा शंकर शेष लिखित इस नाटक का निर्देशन शांतनु छापरिया ने किया है। शांतनु अनुभवी निर्देशक व कलाकार हैं, मगर इस मंच पर बेहद थके थके से लगे। अन्य कलाकार ने भी कोई खास रूचि जैसे नहीं दिखाई थी, सिर्फ नटवर जी के किरदार को छोड़कर। पूरे नाटक में वही एक ऐसे पात्र थे, जिनका आना दर्शकों को राहत देता था।
नाटक की कथा वस्तु से छाम्मकछाल्लो को अपने लिखे नाटक 'अये प्रिये तेरे लिए' याद आयी। पुरुष के छलावे का शिकार स्त्रियाँ होती आई हैं। वह छलिया यदि पति हो तो ऐसे दर्द की पीर बड़ी घनी हो जाती है। यह एक ऐसा दुःख होता है, जिसे स्त्री किसी को बता नहीं सकती, बस मन ही मन घुटती रहती है। 'छलिया' की नायिका विशाखा अंधी है, मगर बड़ी अच्छी उपन्यासकार है। कवि पति को अपने कवित्व पर विश्वास नहीं, इसलिए वह विशाखा का लेखक बन जाता है और उसकी लिखी रचने अपने नाम से छपाता है। बाद में उसके एक मित्र आनंद को इसका पता चलता है। वह विशाखा की आंखों का आपरेशन कराता है और उसकी आँखें ठीक हो जाती हैं। इस बीच पति यानी देव के संबंध अपनी टाइपिस्ट से हो जाते हैं, जिसके लिए वह फ्लैट तक खरीदता है।
नाटक में कई तरह की विषमताएं हैं। टाइपिस्ट उसके सारे काम करती है, उससे प्रेम भी करती है, विशाखा की तथाकथित सेवा करती है, मगर पूरे नाटक में एक बार भी वह टाइप करने नहीं बैठती। संवाद अब की हिन्दी के अनुसार न होने के कारण अब बोझल से लगते हैं। शंकर शेष ने जब इसे लिखा था, तब की भाषा और आज की भाषा में बड़ा फर्क है।
सबसे अजीब ही नाटक का अंत- भारतीय स्त्री का अखंड चरित्र की "भला है, बुरा है, मेरा पति मेरा देवता है'। सारी बातें जानने के बाद और अब अपने अंधत्व से मुक्ति के बाद भी नायिका का इसी भाव से पति को स्वीकार करना आज किसी भी नारी को शायद ही सुहाए।
हिन्दी में आज के लेखक को पचास हजार की अग्रिम रायल्टी मिल जाती है, यह ऐसा सुन्दर स्वप्न है हिन्दी के लेखकों के लिए कि वह अगला कई जन्म 'मुझे चांद चाहिए' जैसे ख्वाब को देखते हुए गुजार सकता है। दूसरे, हिन्दी लेखन में साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार तो होते हैं, राष्ट्रीय पुरस्कार तो छाम्मकछाल्लो के हिसाब से फिल्मों को मिलता है।
सेट इतना भारी भरकम की बस। और प्राप्स का इस्तेमाल नहीं, जैसे टाइप राइटर का, बुक शेल्फ का। नाटक को प्रयोग के स्तर पर करने से दर्शकों की कल्पनाशीलता बढ़ती है। यह हमें नहीं भूलना होगा कि नाटक से केवल दर्शकों का मनोरंजन ही नहीं होता, नाटक और रंगमंच लोगों को शिक्षित करने का सशक्त माध्यम भी है। और सबसे बड़ी बात , इसकी अवधि। विषय और उसके कलेवर को डेढ़ घंटे में आसानी से समेता जा सकता था, मगर इसे मध्यांतर मिलाकर पूरे ढाई घंटे तक खींचना दर्शकों के धीरज की परीक्षा ही लेना था। ऐसा नहीं कि ढाई घंटे का नाटक होना नहीं चाहिए या होता नहीं, मगर उसके लिए कंटेंट चाहिए। खैर, नाटक देखना अपने आप में एक सीख होती है और सीखने के लिहाज़ से भी जब कभी मौका मिले, इसे देखने जरूर जाएँ।
आपसे आग्रह है कि ब्लॉग का टैम्प्लेट बदलें. पृष्ठ भूमि काला रंग के बजाए कोई हल्का रंग चुनें. यह पढ़ने में कठिनाई पैदा करता है.
ReplyDeleteजरूर देखेंगे ये नाटक, वैसे रवि जी की बात सही है.... अगर आप गौर करें ....
ReplyDeleteकुछ देर के बाद आपके ब्लॉग के रंग धुंधले-धुंधले से लगने लगते हैँ...आप अपने ब्लॉग का टैम्प्लेट बदलें...
ReplyDeleteबाकि अच्छा लगा आपके ब्लॉग पर आकर...