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Sunday, December 9, 2007

आजा बच ले!

हाल में आई माधुरी दीक्षित की फिल्म 'आजा नाच ले' के एक गीत के कारण उत्तर प्रदेश में इसे कोप का शिकार होना पडा। फिल्मकार ने इस पर बहस करने के बदले माफी माँग लेना ज़्यादा ठीक समझा। देश के बुद्धिजीवियों ने भी इस पर कुछ कहना उचित नही समझा।
तस्लीमा नसरीन का मामला भी गर्म ही है। सभी बुद्धिजीवी, महिला संगठन आदि इस पर बहस कर रहे हैं कि उन्हें शरण दी जाए या नहीं। तस्लीमा आधुनिकता का प्रतीक बन गई हैं, बोल्ड लेखन की आइकन मानी जा रही हैं। लेकिन उन्होंने भी अखबारों में छपी खबर के मुताबिक किताब से आपत्तिजनक पृष्ठ निकाल दिए हैं।
कबीर, शुक्र है कि इस काल में पैदा नही हुए। हुए होते तो ककर -पाथर जोडि के' या 'पाहन पूजे हरी मिले'' आदि पर उनके नाम से भी फतवा जारी कर दिया जाता। वे तो अमीर भी नहीं थे और ना ही प्रभुत्वशाली ही। उनकी तो राह चलते ठुकाई हो जाती, या पाश, चन्द्रशेखर की तरह हत्या कर दी जाती।
ज़माना डर का है। डरते रहिये। पत्रकारिता का क्षेत्र हो या लेखन या फिल्म का, खतरा कोई मोल नहीं लेना चाहता। वरना, किसी एक के कहने पर जाती, धर्म इतना आगे हो जाता है कि उसके आगे सदियों से चली आ रही कहावतें, लोकोक्तियाँ, सब बदल दिए जा सकते हैं। छाम्माक्छाल्लो को याद है कि बचपन में अपने स्कूल में वे सब एक गीत गाते थे-
गप्प सुनो भाई गप्प, अरे गप्पी मेरा नाम, गए, चढ़े खजूर पर और खाने लगे अनार। चींटी मरी पहाड़ पर, खींचन लागे चमार।' इस गीत का उपयोग छाम्मक्छाल्लो ने बच्चों के लिए लिखे अपने नाटक में किया है। इसे सुनते ही हमारे एक शुभ चिन्तक ने कह दिया, यह शब्द हटा दीजिए, वरना॥ उनके वरना में छुपे डर को मैं समझ गई हूं। अब कलाल को कलाल न कहे, शूद्र को शूद्र न कहे, लेकिन जब सरकारी आरक्षण व फायदे की बात आती है, तब जाति प्रमाण पत्र पर जाति का नाम देते हुए कोई झिझक नहीं लगती किसी को भी। अब इसे आप क्या कहेंगे?

5 comments:

  1. आजा नाच ले आजा बच ले बहुत ख़ूब बढ़िया

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  2. बढिया पोस्ट....

    नौकरी में तो मनी का सवाल होता है तो जो नहीं होते ..वो भी नकली प्रमाणपत्र बनवा के उनके जैसा बनने में संकोच नहीं करते कि पैसा बनाने में कैसी शर्म?..फिर भला असली वाले पीछे क्यों रहें?...

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  3. rajasthan patrika main aaj nach le rivew ka haeding bhi yahi tha....aaja bach le...

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    फिल्मकार ने इस पर बहस करने के बदले माफी माँग लेना ज़्यादा ठीक समझा।
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    निर्माता कोई समाज सुधारक नहीं हैं। महज व्यापारी हैं।
    उन्हें पैसे से मतलब है। सरकार से या किसी जाती के लोगों से क्यों भिडें?
    समझौता करने में अपना हित नज़र आया, सो झट से समझौता कर किया।
    Practical fellows हैं यह लोग।
    फ़िल्म की इतनी publicity हुई कि उन्हें कोई नुकसान नहीं हुआ होगा।
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    देश के बुद्धिजीवियों ने भी इस पर कुछ कहना उचित नही समझा।
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    चलो अच्छा हुआ। बुद्धिजीवि तो इसे केवल "petty issue" ही समझते होंगे। इस पर समय क्यों बरबाद करें?

    तमिल में कई फ़िल्में बनी थी जिसमें ब्राह्मणों का तिरस्कार हुआ था। किसीने ध्यान भी नहीं दिया।
    फ़िल्म पडोसन में सबका खूब मनोरंजन हुआ। अगर वह फ़िल्म आज बनता, क्या प्रतिक्रिया होती?
    आजा नचले के इस गाने में मुझे किसी जाती पर हमला नजर नहीं आया। बस एक व्यवसाय पर मजाक था। पर क्या हम डॉक्टरों और वकीलों के सम्बन्ध में चुटकुले नहीं सुनते और सुनाते?

    सरदारों पर, मारवाड़ियों पर, सिंधियों पर और मदरासियों पर भी हमने मज़ेदार कहानियाँ और चुटकुले सुने हैं। किसी को आपत्ति नहीं हुई। यह अचानक हम सब को क्या हो गया है? क्या हम हँसना भूल रहे हैं?

    G विश्वनाथ, जे पी नगर, बेंगळूरु

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  5. मैं अति संवेदनशील क्षेत्र से तो नहीं आता मगर फ़िर भी कहना चाहूँगा - बाकी सभी बातों से पूरी तरह सहमत होते हुए भी मैं अन्तिम para से खुद को सहमत नहीं करा पा रहा.

    पूछ कर देखीयेगा किसी अंधे से- उसे अन्धा कहे जाने से दुख होता है या नहीं ? और यह भी कि एक आँख के लिये वो क्या दे सकता है. जैसा अपना भारत महान है अभी उसमे तो मैं अगर ’चमार’ होता तो शायद ही कहीं इसे गर्व के साथ बताता. आगर जाती प्रमाण पत्र पर किसी code का भी प्रावधान हो तो शायद ही कोइ "शूद्र" लिख कर underline करना चाहेगा.
    धर्मपरिवर्तन कर जो इससे मुक्त हो पा रहा है वो होने की कोशिश कर रहा है पर इतना तो तय है कि भारत के सबसे समझदार,बुद्धिजीवी चमार ने कभी न कभी ईश्वर को इस बात के लीये जरूर कोसा होगा कि एक वर्ण तो उपर पैदा करता प्रभू.

    अब तीन वर्ष बाद इसे पढ़ें तो आपकी राय क्या होगी ?

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