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Thursday, May 15, 2014

सीता का श्रीलंका दौरा


त्रेता युग से सीता हमारे साथ हैं। न बेटी, न बहन, न बीवी, न भाभी, न मां! केवल जगजन्‍नी!
छम्‍मकछल्‍लो को सीता के इस रूप पर बड़ी दया आती है। वह भी सीता की भूमि मिथिला से है ना! मिथिला पर नजर डालने पर वह पाती है कि उसकी मिथिला में सारी लड़कियां माल या मादा हैं माता और बहन तो हर्गिज नहीं। लड़की बड़ी हुई नहीं कि उनपर दीठ गड़ी नहीं। मणिकांचन योग की तरह लड़कियों के मन में भी अपने तन के प्रति चेतना जगती है। जय सौन्दर्य प्रसाधन और फैशन फिएस्टा की!


तब अप्सराएँ सजती थीं, देवियाँ भी सजती थीं। छम्‍मकछल्‍लो के मन में आता है कि क्या तब सीता का मन नहीं किया होगा अपनी भरी-पूरी उम्र में अपने शोख बदन को देखने का, देखकर इतराने का, इतराकर बल खाने का, बल खाकर लहराने का, लहराकर मचलने का? जरूर किया होगालेकिन, भाई साब! इन सब अदाओं की उम्‍मीद किसी माता से कैसे की जा सकती है? वे कोई आज की गहरे मेक-अप, लाल लिपस्टिक, लंबी टीका, डिजाइनर ड्रेसवाली युवा माता थोड़े ना हैं, जिन्हें देखकर मन में माता का भाव तो हम औरतों में भी नहीं आता।
सीता के दो-दो मायके हैं। चौंकिए मत! कहा जाता है कि जनक पुत्री जानकी, मिथिला ललना मैथिली, विदेह आत्‍मजा वैदेही के पहले सीता रावण और मंदोदरी की बेटी थी। वैसे भी सभी जानते हैं कि जनक को सीता खेत में हल चलाते वक्त मिली थी। इससे यह तो तय है ही ना कि जनक सीता के अपने पिता नहीं थे। तो फिर सीता किसी न किसी माता-पिता की जैविक पुत्री तो रही ही होगी ना! आकाशवाणी का प्रचलन कब शुरू हुआ, पता नहीं। मगर हमने जाना कि रावण के लिए भी कंकी तरह आकाशवाणी हुई कि उसकी यह संतान उसकी मृत्‍यु का कारण बनेगी। अब जी, कौन ऐसा महान इंसान होगा, जो मृत्‍यु से न डरे। और कौन ऐसी मां होगी, जो संतान को यूं ही मरता छोड़ देना चाहेगी।
सो पहुंचा दी गई सीता रावण-राज्‍य की सीमा के बाहर। शास्‍त्रों ने कहा है, पति से छल करनेवाली स्‍त्री अगले जन्‍म में मुर्गी बनती है। पत्‍नी से छल करनेवाले पति? सीता को छल से जब राम ने वनवास भेजा तब राम अगले जन्‍म में क्‍या मुर्गा बने होंगे?
सीता सुंदरी थी, सुकुमार थीजरूर जीरो साइज रही होंगी। फिर भी उसने शिव-धनुष उठा लिया। मैग्‍नेटिक टेक्‍नोलॉजी! लेकिन बुद्धिधाम जनक ने इसी बहाने कर ली राजा-महाराजाओं की बाहुबली परीक्षा! कहने को स्‍वयंवर, लेकिन आमंत्रित कौन? राजे-महाराजे! शर्त किसकी? पिता की! द्वापर में भी स्‍वयंवर किसका? द्रौपदी का? आमंत्रित कौन? राजे-महाराजे! ये कौन सा स्‍वयंवर हुआ यार! स्‍वयंवर मेरा, मर्जी बाप की! बुला लिए बड़े-बड़े राजा-राजकुमार और थमा दिया हाथ ऋषि- कुमार के! द्रौपदी को भी क्‍या मिला? निर्धन ब्राह्मण कुमार! वह तो बाद में इन कन्‍याओं को पता चला कि उनके पति तो जी, राजकुमार हैं। लड़कियों के लिए हर बात में बाउजी जानेंगे की परम्‍परा शायद यहीं से शुरू हुई होगी।
कहते हैं न कि अपना खून जोर मारता है। सीता को भी जीवन के एक मोड पर पता चल गया होगा कि वह राजा जनक की बेटी नही हैं। उसका भी मन अपने माता-पिता के बारे में जानने को छटपटाया होगा। श्री राम के साथ वनवास जाने के पीछे ज़रूर उसकी मंशा रही होगी, इसी बहाने अपना मायका तलाशने की। ससुराल तो वैसे ही उत्तर-प्रदेश या बिहार की ललनाओं के लिए एक बंद घर होता है। सीता तो राजकुमारी और अब राज घराने की बहूरानी थी।
मायका खोजने का यह काम त्रेता में हो न सका। मिथिला की परम्‍परा को देखते हुए छम्‍मकछल्‍लो नोटराइज्ड कराए स्टैम्प पेपर पर साइन करते हुए कह सकती है कि वहां तो वह असूर्यम्‍पश्या ही रही होगी। ससुराल पहुंची तो और भी हर-हर गंगे! पता नहीं, तब मेंहदी थी या नहीं, लेकिन मुहावरे में कहें तो हथेली की मेंहदी छूटी भी न थी कि पति चले वनवास। अब भला है, बुरा है, मेरा पति मेरा देवता है भी सीता की ही तो देन नहीं!
वन को निकली सीता। आजू-बाजूवालियों ने कहा, तीन-तीन सास के त्रिकोण में कौन फंसे! बढि़या है बनवास! पति का साथ तो मिलेगा। भारतेन्‍दु ने भी जरूर यहीं से प्रेरित होकर लिखा होगा
टूट टाट घर टपकत, खटियो टूट
पिय के बांह उसीसवां, सुख कै लूट!
      वही पति छल से सीता को त्‍याग देता है तो उसी छल से रावण उसे हर भी लेता है। कहते हैं, राजा-जनक ने सीता को शस्‍त्र-शास्‍त्र और माता सुनयना ने घर-गृहस्थी की सभी शिक्षा दी थी। फिर भी सीता कैसे मात खा गई? असल में, पर्सनैलिटी ग्रूमिंग नहीं हुई न! पहले मायके, फिर ससुराल, फिर पति और अब देवर की घेरी रेखा में केवल जगज्जननी सीता ही नहीं, आज की सीताएँ भी तब से आजतक बंद ही हैं।  
      पहले के साधु-सन्‍यासी शायद सच्‍चे होते थे। इसलिए रावण के घर से लौटी सीता पर धोबी ने ताने मार दिए। गनीमत है, वाल्‍मीकि या सीता पर किसी ने कुछ नहीं कहा। आज के बाबा लोग होते तो कह देते हनीमून मना रहे थे। क्या पता, यह भी कह देते कि लव-कुश तो राम की संतान ही नहीं!
      सीता को मिला ही क्‍या ससुराल से? गहने सासुओं के लॉकर में! बनारसी साड़ियाँ ट्रंक में। हो सकता है, उन्हीं गहनों से यज्ञ के समय स्‍वर्ण मूर्ति गढ़ ली गई होगी लो जी लो! सीता भी मेरी, सोना भी मेरा!
      सीता ने जरूर सोचा होगा कि रावण केवल धमकाता भर क्‍यों रहा? जबर्दस्ती क्यों नहीं की? जरूर सीता के बदन पर कोई निशान रहा होगा, जन्म का, जिसे रावण पहचान गया होगा और उसे पहचान मंदोदरी भी खूब रोई होगीसीता को भी अपने मायके की असलियत पता चल गई होगी। लेकिन, माँ और पति का ख्‍याल कर वह चुप लगा गई होगी!
      पर, मन में तमन्‍ना तो रही होगी अपनी मातृभूमि के जर्रे-जर्रे को देखने की, वहां की धूल माटी में घूमने-फुदकने की। बिचारी सीता! लंका पहुंचकर भी अपने मन की यह मुराद पूरी न कर पाई होगी। कैसे करती! बंदी जो थी। धरती में समाने के बाद भी उसकी यह इच्‍छा उसके मन में ज़रूर समाई रही होगी।  इस इच्छा –पूर्ति के लिए उसे त्रेता से कलियुग की इक्‍कीसवीं सदी तक का लंबा इन्‍तजार करना पड़ा, जब उसने छम्‍मकछल्‍लो के रूप में अवतार लिया और श्रीलंका गई।
      पर अब समय बदल गया था। अब वहां हिन्दू धर्म का कोई नाम लिवैया नहीं। बौद्ध धर्म इतने प्रबल तरीके से स्‍थापित हो चुका है कि वहां किसी और धर्म का कोई राष्‍ट्रपति नहीं बन सकता। बहुमत मिला तो उसे बौद्ध धर्म स्वीकारना होगा। छममकछल्लो की देह में बसी सीता पूरी लंका घूम आई। पर, उसे लगा नहीं कि वह अपने देश या अपने मायके आई है। बहुत खोजने पर उसे एक हनुमान मंदिर मिला। लेकिन जिसकी ओर वह आकर्षित हुई, वह थी वहाँ की साफ-सफाई! सीता ने मान लिया कि स्वच्छता में ही देवी-देवता वास करते हैं। आम आदमी, आम विक्रेता उसे विदेशी मानकर उससे दो पैसे ज़्यादा खींच लेने के चक्कर में थे। उसे अपनी मिथिला याद आ गई तो उसे लंका और मिथिला का अंतर खतम होता नज़र आया। इस अंतर में वह श्री राम की तरह ही लंका को श्रीलंका कहने लगी। पीछे श्री लगाती- माताश्री, पिताश्री की तरह लंकाश्री, तो लगता कि वह देश नहीं, देश के स्वामी को पुकार रही है।  

            सीता रूपी छम्‍मकछल्‍लो को संतोष था कि वह तय कर पाई श्रीराम से श्रीलंका तक का सफर! राजकुमारी के खोल से निकलकर एक मेहनतकश स्‍त्री के कवच में आकर! अपनी कमाई और अपने रसूख से अपने मायके जाकर। किसी ने उसे नहीं पहचाना, किसी ने उसे नहीं जाना! वैसे भी आज के समय में सब बदल गया है। सीता का विश्‍वरूप इतना बढ़ गया है कि लोग उसके असली रूप को ही भूल गए हैं। श्रीलंका में उसने किसी को दूध की तरह गोरा या कोमल-सुकुमार नहीं देखा। परंतु, यहाँ जगज्जननी का प्रश्न था। जगज्जननी कोई भी बने, उसे सुंदर, सुकुमार, गोरा होना ही है। शास्त्र के साथ-साथ आज के भारतवासी तो उसे, उसकी जन्‍मस्‍थली, उसकी भाषा मैथिली सभी को भूल गए। छम्‍मकछल्‍लो को बताना पड़ता है कि मैथिली माने, जगज्जननी सीता की भाषा! लोग वाऊ करते हैं और कहीं और खो जाते हैं। खो गया जाने कहाँ सीता का बाल मन, उसकी शोख युवावस्था, उसका घर, उसका मायका। शायद वस्‍तुओं और व्‍यक्तियों के भूमंडलीकरण में स्‍थानीयता ऐसे ही विलुप्‍त हो जाती है, जैसे सीता का लंकाइन या मिथिलाइन स्वरूप! बस याद रह गया उसका जगज्जननी स्वरूप! ####

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