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Saturday, February 13, 2010

गॉड! यू आर ग्रेट!

"हंस" के फरवरी, 2010 के अंक में छम्मकछल्लो की एक कहानी छपी है. पढें और अपनी राय दें.

गॉड! यू आर ग्रेट!

      वे दोनों इस महान देश की महिलाएं थीं, भावनाओं की चाशनी में पगी, भाषा की उन्नत उठान में ढली, पहनावे की समुद्री लहरों की तरंगों में खिलीं, दिखावे के महाभ्रम जाल में सजी, जज़्बातों की सपनीली गागरी से भरी, विचारों की उन्नत श्रृंखलाओं से अड़ी! इन खुसूसियतों से लबरेज ये इस मुल्क की कोई भी दो महिलाएं हो सकती है - मैं और आप भी, आप और कोई और भी। कोई और कोई और भी।
      वे दोनों ही एक अच्छी कंपनी में अच्छे-अच्छे ओहदों पर थीं। कह लें कि प्रबंधक थीं, मुख्य प्रबंधक थी और यह तयशुदा बात है कि राजनीति या अभिनय के अलावा इतने बड़े पदों पर बिना अच्छी शैक्षणिक योग्यता के नहीं पहुंचा जा सकता। लिहाजा वे दोनों अच्छी-खासी पढ़ी-लिखी भी थीं।
      वे दोनों खुद भी तरक्की कर रही थीं। खुद तरक्की कर रही थीं, इसलिए समाज तरक्की कर रहा था और चूंकि समाज तरक्की कर रहा था, इसलिए देश भी तरक्की कर रहा था।
      चूंकि दोनों अच्छी-खासी पढ़ी-लिखी थीं, इसलिए प्रगतिशील ख्यालातों की भी मानी जाती थीं, प्रगतिशील ख्यालात का हर पढ़े-लिखे के साथ चस्पां कर देने की हमारी मूलभूत परंपरा है। होना भी चाहिए। आखिर को अगर पढ़े-लिखे ही प्रगतिशील विचारों के नहीं हुए तो व्यक्ति, समाज और देश तरक्की कैसे करेंगे? इस लिहाज से कंपनी अच्छी थी, लिहाजा उन दोनों को सारी सुविधाएं थीं। वे हवाई जहाज से दौरे करतीं, पांचसितारा में ठहरतीं। अक्सर लंच के लिए किसी अच्छे रेस्टोरेंट में निकल जाती। डिनर पर अपने परिचितों, मित्रों को बुलातीं। वे सभी देश के, समाज के हालात पर गौर करतीं। महिला होने के लिहाज से वे महिलाओं पर चर्चा करती, अपने देश और अन्य देशों व धर्मों की महिलाओं की तुलना करती और अपने धर्म और देश की महिलाओं की हालत सबसे अच्छी घोषित संतुष्ट हो लेतीं।
      चूंकि वे दोनों इस महान देश की महान पढ़ी-लिखी नागरिक थीं, इसलिए देश के हर पढ़े-लिखे इंसान की तरह अपनी मादरी जबान से अलग हो गई थीं। दफ्तर की बातें तो दफ्तरी जबान में करते-लिखते ही, आपसी बातचीत भी वे उसी जबान में करते। इसे मादरी जबान की अपनी जिंद ही कही जा सकती है कि यह किसी अडिय़ल बच्चे की तरह बीच-बीच में उनकी प्रगतिशील भाषा के बीच में आ टपकती थी। यह दीगर बात थी कि इतने से गैर दफ्तरी जबान वालों को थोड़ा सकून मिल जाता था। बोलने वालों को भी कोई शारीरिक, मानसिक, आर्थिक नुकसान नहीं होता था। इसलिए मादरी जबान के इस्तेमाल से उन्हें भी कोई परेशानी नहीं होती थी।
      उनकी उम्र? अब उम्र जानकर क्या कर लीजिएगा जनाब? वह भी महिलाओं की उम्र?.... अच्छा, मतलब आप कह रहे हैं कि पढ़ी-लिखी-कामकाजी महिलाओं की उम्र छुपाने का कोई मतलब नहीं, क्योंकि वह उनके दफ्तर के हर जरूरी, संदर्भित कागज में दर्ज होता है।.... हूं.... बात में तो दम है। तो लीजिए, बताए देते हैं कि वे कितने उम्र की। स्वर्ण जयंती मना चुकी थीं और हीरक की पारी की ओर अग्रसर हो रही थीं। उमें तो अनुभव है, इस लिहाज से भी वे तजुर्बेकार, संवेदनशील, प्रगतिशील और विचारशील थीं, अपनी तमामो-तमाम शीलताओं के साथ-साथ वे आजाद ख्यालातों की भी थीं। इसका ज्वलंत दृष्टांत तो यह था कि इनमें से एक ने शादी नहीं की थी और एक ने तलाक ले लिया था।
      उनके पास गाडिय़ां थीं। मगर देश और अपनी इकॉनॉमी का ख्याल रखते हुए वे कार पूल करती थीं। पेट्रोल भी बचता था, मुंबई की ट्रैफिकवाली सडक़ पर एक और कार की मौजूदगी जाम में शून्य का न्यूनतम प्रतिशत ही सही, मगर उसमें कमी करती थी और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि इससे उन्हें दफ्तर आने-जाने के लिए एक-दूसरे की संगति मिल जाती थी। वरना, खुदा गारद करे आज के इस गलाकाट प्रतियोगी माहौल माहौल का कि एक दफ्तर में होते हुए भी लोग आपस में नहीं मिल पाते थे, अपने-अपने फ्लोर के बाद अपने-अपने केबिनों में सिमट आए और अपने-अपने कम्प्यूटर में चिपक आए लोग।
      सुबह और शाम का इनका गाड़ी में मिलना इन्हीं दीन-दुनिया से मिला देता था। वे टीवी की खबरों की समीक्षा करतीं, क्योंकि अखबार पढऩे का इनके पास वक्त नहीं होता, हालांकि देश के हर पढ़े-लिखे, इसलिए सभ्य नागरिक की तरह ये भी अखबार लेती और अखबार के हेडलाइन्स देखकर उन्हें रद्दीवाले के लिए रख देतीं।
      शाम होते ही पक्षियों की तरह सभी नौकरीपेशा अपने-अपने घरों की ओर चल पड़ते हैं। मुंबई की सडक़ें गाडिय़ों से, बसें और ट्रेनें यात्रियों से ठुंस जाती हैं। हर की आंखों में जल्दी घर पहुंचने की उतावली साफ-साफ नजर आती है।
      ये दोनों भी अपनी कार में थी, एक कार चला रही थी, दूसरी कैंटीन से लिए गए पकौड़े खुद भी खा रही थी और कार चलानेवाली को भी खिला रही थी। दफ्तर से निकलने के बाद दफ्तर का प्रभामंडल सभी पर तारी रहता है। ये दोनों भी थोड़ी देर तक उसके प्रभाव में रहती हैं। जिसके क्रम में काम की अधिकता, सहकर्मियों की निष्क्रियता के साथ-साथ बॉस की शिकायतें होती थीं। यह एक शोध का विषय हो सकता है कि कभी किसी का बॉस अच्छा क्यों नहीं हो सकता? अच्छा भी हो तो शिकायत के चलन में उसकी बुराइयां लाजिमी है, वरना बॉस का चमचा या चमची कहे जाने का खतरा है। महिलाओं के लिए खतरे की यह घंटी जरा ज़्यादा तेज बजती है।
      सडक़ पर जाम था। मुंबई में अब जाम रहने पर नहीं, जाम न रहने पर हैरानी होती है। पकौड़ों के आदान-प्रदान, हेयर-कट और स्टाइल के बाद मेकअप-किट और लिप्स्टिक के बाद, बच्चों की पढ़ाई और कैरियर के बाद, दफ्तर का रोना रोने के बाद, बॉस की शिकायत के बाद अचानक दोनों ने पाया कि उनकी गाड़ी के एकदम बगलगीर होकर एक गाड़ी चल रही है। पहली एकदम दायीं लेन में कार चला रही थी, जिसके बाद डिवाइडर ही था। उसकी बाईं ओर की गाड़ी उसे लगातार दबाए चली जा रही थी। एक मुकाम ऐसा आया कि दोनों की गाड़ी के बीच फासला न के बराबर रह गया था। दूसरी की खिडक़ी के पास ड्राइवर की कोहनी पहुंच गई थी। उसके मुंह से हल्की चीख निकल गई। पहली ने गाड़ी थोड़ी और दायें की, इसकी गाड़ी ने उसे और दबाया, वह और दबी, उसने भी गाड़ी को दबाया। अब गाड़ी च्यादा नहीं दब सकती थी। वह डिवाइडर के एकदम पास आ गई थी। बगलवाली गाड़ी आगे बढ़ गई, मगर सामने सडक़ खाली होने के बावजूद उसकी स्पीड नहीं बढ़ी। वह ढुलमुल फिर तेज गति से आगे बढ़ती रही। ऐसा लगता था, जैसे कोई नया सीखने वाला गाड़ी चला रहा हो। गाडिय़ों के रेस में वह कार कहीं खो सी गई।
      पहली ने सामने सडक़ खाली देख फिर से स्पीड बढ़ाई। थोड़ी दूर आगे आने पर उसे अपनी बगलवाली गाड़ी फिर दिखाई दी। वह फिर से मध्य लेन में थी। गाड़ी चलानेवाला पचीस-छब्बीस साल का युवा था। उसके चेहरे पर तनिक सी उलझन थी। चेहरे से वह च्यादा पढ़ा-लिखा नहीं, मगर अनपढ़ भी नहीं दिख रहा था। उसने सफेद पठानी कुर्ता पहन रखा था, सफेद टोपी लगा रखी थी, जो आधे माथे पर ही खतम हो जाती थी। पहनावे की इस खुसूसियत को देखते ही दोनों तनिक चौंकी थी। गाड़ी चलाते हुए पहली तनिक चौंकी गाड़ी चलाते हुए पहली तनिक सतर्क हुई, फिर उसने सशंकित नजरों से उसे देखा, दूसरी भी पकौड़े खाना बन्द कर उसे देख रही थी। गाड़ी वाले ने फिर से अपनी गाड़ी उसके करीब कर दी। दूसरी ने कहा -'भैया, जरा ठीक से गाड़ी चलाओ।'
      'क्यों? ठीक से ही तो चला रहा हूं। उल्टा आपलोग ही ठीक से नहीं चला रहे हो। मेरी गाड़ी दबा रहे हो।'
      पहली ने कहा -'मैं तो अपनी लेन में जा रही हूं। मैंने लेन भी नहीं बदली है। लेफ्ट से आप आकर गाड़ी दबा रहे हो।'
      दूसरी ने कहा -'आप देख रहे हो, हमारी गाड़ी एकदम राइट लेन में है। हम गाड़ी दबाएंगे तो हम किधर जाएंगे?' 
      कारवाले ने कहा -'लेकिन आप तो हमारी गाड़ी का एक्सीडेंट करनेवाली हैं। वो तो मैंने गाड़ी निकाल ली, वरना एक्सीडेंट तो हो ही जाता।'
      दूसरी को हंसी भी आई और गुस्सा भी। उसने कहा -'गाड़ी लेफ्ट से लेकर राइट में आप दबा रहे हो और एक्सीडेंट हम कर रहे हैं?'
      पहली को पता नहीं क्या, वह आदमी बड़ा रहस्यमय लगा। उसने दूसरी से कहा, 'छोड़ो बहस मत करो।'  और उसने गाड़ी आगे निकाल ली। पता नहीं क्यों, उसका कलेजा अब धक-धक कर रहा था। टियर व्यू मिरर से वह उस गाड़ी पर नजर रख रही थी। वह बोली -'मुझे वह आदमी ठीक नहीं लगा। देखा, कैसे बात कर रहा था। अरे, मैं अपनी लेन में हूं, गाड़ी वह दबा रहा है और उल्टा मुझे ही बोल रहा है कि मैं उसकी गाड़ी का एक्सीडेंट करने जा रही थी।'
      दूसरी ने कहा -'वही तो। अरे, उसकी गाड़ी तो एकदम मेरी बगल में आ गई थी। शुकर है कि एसी की वजह से खिडक़ी बंद है, वरना जरा भी हाथ खिडक़ी से बाहर रहता तो एक्सीडेंट हो जाता।'
      पहली ने रियर व्यू मिरर से देखकर कहा -'वह अभी भी अपने ही पीछे आ रहा है। पता नहीं, उसकी मंशा क्या है?'
      दूसरी ने कहा -'अगले सिग्नल पर ट्रैफिक पुलिस मिलेगी। बताते हैं उसे। वह गाड़ी रोकेगा, पूछताछ करेगा, पता चलेगा।'
      सिग्नल आ गया। पहली का मोबाइल डैश बोर्ड पर रखा हुआ था। उस का हाथ बार-बार मोबाइल पर जा रहा था। दूसरी ने पूछा -'क्‍या हुआ( किसी को अर्जेंट फोन करना है क्‍या(
      नहीं मैं सोच रही हूं, पुलिस को फोन कर दूं। देख रही हो, आज कितना जैम है। जरूर आगे पुलिस की नाकेबंदी होगी। और वह जरूर इस गाड़ी की वजह से होगी। किसी ने इन्‍फॉर्म किया होगा। क्‍या पता, उसकी कार में एम्‍यूनिशन हो, आरडीएक्‍स हो। ही हिमसेल्‍फ कैन बी अ ह्यूमन बम।
      'हां, देखा होगा, इस कार में केवल दो लेडीज हैं तो सोच रहा होगा कि इसी से टकरा देते हैं।'
      'देख ना, अभी भी पीछे ही उसकी गाड़ी। वह फिर से साइड में ले आएगा या क्‍या पता पीछे से ही...'
      'देख, सिग्‍नल पर ट्रैफिक पुलिस है ही। तू कहे तो मैं उतरकर जाती हूं उसके पास।'
      'नहीं, नहीं तू मत उतर। मैं यहीं से उसका नंबर देख रही हूं। हम गाड़ी क्रॉस करते हुए ट्रैफिक पुलिस को बता देंगे।'
      सिग्‍नल ग्रीन हो गया। गाडि़यां बढ़ चलीं, ट्रैफिक पुलिस पीछे छूट गया। ये दोनों उलझन में ही रहीं। पहली बराबर अपनी नजर रियर व्‍यू मिरर पर रखे हुई थी -'उसकी गाड़ी को एक दूसरी कार ने ओवर टेक किया है। अब वह तीसरे नंबर पर है। क्‍या करें, पुलिस को फोन करें? देख रही है, कितना ट्रैफिक है। जरूर कोई बात है।'
      'हां...' दूसरी थोड़ी अनमनी हो गई या गाड़ी तीसरे नंबर पर है, यह सोचकर निश्चिंत, मालूम नहीं।'
      'आई थिंक, वी शुड इन्‍फॉर्म पुलिस। वामनराव को फोन करूं क्‍या? वह पुलिस अफसर है। उसका नंबर मेरे पास है। गाड़ी का नंबर मुझे याद है। वह तुरंत अपने कंट्रोल रूम से सब मैनेज कर लेगा।
      'कौन वामनराव?'
      'मेरे हस्‍बैंड का फ्रेंड। उस दिन आया था न हमारे यहां डिनर पर।'
      'हूं, स्‍मार्ट चैप।' पहली की कुंआरी आंखों में एक चमक उभरी फिर तत्‍क्षण ही बुझ भी गई -'उसकी वाइफ भी कितनी स्‍मार्ट है ना?'
      'तू देखना, घर पहुंचते-पहुंचते टीवी पर खबर आ गई रहेगी - फलाने जगह बम-ब्‍लास्‍ट। ह्यूमन बम। देख न, कितना जाम चल रहा है। नाकेबंदी है यह सब।'
      'पर अभी तक तो कहीं नाकेबंदी नहीं मिली। कोई एक्‍स्‍ट्रा पुलिस भी नहीं दिखी है।' दूसरी की उधेड़बुन वाली आवाज पहली को निरूत्‍साहित कर रही थी। कई सिग्‍नल जा चुके थे और न तो ट्रैफिक पुलिस से संपर्क साधा जा सकता था, ना वामनराव से।
      'वो जिस भी गाड़ी से वह अपनी गाड़ी टकराएगा, उसके तो ड्राइवर समेत परखचे उड़ेंगे ही। अगल-बगल वाले भी उसकी चपेट में आएंगे। कितने लोग बेमौत मरेंगे। आई स्टिल थिक, वी मस्‍ट इन्‍फॉर्म पुलिस।'
      'अभी तक अपने पीछे ही है क्‍या?'
      'नहीं, अब वह नहीं दिख रहा। शायद पीछे रह गया।'
      'हो सकता है, पीछेवाले क्रॉसिंग पर वह दूसरी ओर चला गया हो, राइट... या फिर लेफ्ट...'
      'मे बी। बट ही वाज लुकिंग टू डेंजरस। मैं तो अभी भी सोचती हूं कि पुलिस को खबर कर दूं।' पहली के हाथ बार-बार डैशबोर्ड पर रखे अपने मोबाइल की ओर बढ़ जा रहे थे।
      'अनयूज्‍युअल ट्रैफिक टुडे।' दूसरी ने कहा और अचानक से चौंकी, उसकी बगल में एक दूसरी गाड़ी आ गई थी। इसे चलानेवाला अधेड़ उम्र का था। अपने नीले रंग की शर्ट पहनी हुई थी। दाढ़ी बढ़ी हुई थी। सर पर सफेद टोपी थी। दूसरी ने छूटते ही कहा -'आज क्‍या बात है? केवल मुल्‍ले ही मुल्‍ले टकरा रहे हैं।'
      'मैं कह रही हूं न तुमसे कि आज जरूर कुछ होनेवाला है। इन लोगों पर तो भरोसा किया ही नहीं जा सकता। मैं तो इनको देखकर दूर से ही फूट लेती हूं।'
      'हां, सचमुच। दे आर नॉट रिलायबल, एट ऑल।'
      'पूरी दुनिया का तो कबाड़ा कर रखा है।'
      'अब तो भस्‍मासुर बना बैठा है। पाक को भी तिगनी का नाच नचा रहा है।'
      'अच्‍छा कर रहा है। जैसी करनी, वैसी भरनी। अपने यहां लोगों को ट्रेन कर करके सारी दुनिया भेजेगा, खुद उसका अपना घर कब तक बेदाग रहेगा? अच्‍छा हुआ। दे डिजर्व इट।'
      'ये लोग कभी भी किसी के नहीं हो सकते, आई टेल यू।'
      'अच्‍छा देख, वो गाड़ी वाला दिख तो नहीं रहा?'
      'नहीं। मगर मेरा मन कह रहा है, आज जरूर कुछ होगा। तू घर जाकर टीवी देखना और मुझे भी बताना।'
      'क्‍यों? तुम्‍हारा टीवी?'
      'खराब हो गया है। अब संडे को मेकैनिक बुलवाऊंगी...अकेले होने के ये सब फायदे हैं ना!  देख न, अभी भी ट्रैफिक कितना है? हमें वामनराव को फोन करना चाहिए था।'
      पता नहीं क्‍या संयोग था दूसरी के बगल से तीसरी गाड़ी गुजरी, उसे देखकर भी वह चौंकी -'यार, आज सचमुच कुछ बात है। फिर से मुल्‍ला।. ओह, मुझे तो इनलोगों को देखकर ही डर लगने लगता है।'
      दोनों की बातचीत में विराम लग गया। दोनों के घर आ गए थे। गाड़ी उनकी इमारत में घुस गई। दोनों अपने-अपने घरों में समा गई। दूसरी तो घर में अकेली थी, इसलिए वह चुपचाप रही। कपड़े बदले, चाय पी, फिर टीवी खोलकर बैठ गई। पहली ने अपनी बेटी से सारा माजरा शेयर किया। फिर कहा -'बेटे, यू हैव टू बी वेरी वेरी केयरफुल। कभी भी अगल-बगल ये लोग दिखें तो वहां खड़ी भी मत रहना। बात तो हर्गिज-हर्गिज मत करना। दे आर वेरी वेरी डेंजरस।'
      'ममा, ट्रैफिक कम नहीं हुआ था?'
      'घर तक तो वैसे ही थिक एंड डेंस ट्रैफिक मिला आज तो।'
      'और नाकाबंदी?'
      'नहीं मिला कहीं भी।'
      'तो ममा, हाऊ कैन यू से दैट ही वॉज़्ज अ टेररिस्‍ट?' कम ऑन ममा। पढ़ी-लिखी होकर भी तुम... '
      'इसमें पढे और अनपढ़े की क्‍या बात है? जान तो सभी की एक ही जैसी है न! जिस चीज को अमेरिका भी कह चुका है, उसे...'
      'अमेरिका सब कुछ सच ही तो नहीं कहता है न ममा? अच्‍छा तुमने वामनराव अंकल को फोन तो नहीं किया न?'
      'नहीं,'
      'ओह जीसस।'
      'मगर अभी भी सोचती हूं कि वामन राव को...'
      'ममा प्‍लीज ही कुड बी अ ले-मैन। हमारी-तुम्‍हारी तरह पुलिस में खबर करते तो उस बिचारे का क्‍या होता? ऐज यू सेड, ही वॉज़ अ यंग चैप तो उसके मां-बाप... ममा, अगर मेरे साथ ऐसा कुछ हो तो तुम्‍हारी क्‍या हालत होगी?'
      पहली ने झट सॆ बेटी का मुं‍ह बंद कर दिया। खुद भी चुप हो गई। मोबाइल भी शांत रहा। केवल दोनों के दिलों की धड़कनें बोलती रहीं।
      पहली के पास दूसरी का फोन अब तक नहीं आया। तो वह समझ गई कि शहर में सब ठीक है। फिर भी मन के सुकून के लिए उसने उसे फोन किया और पूछा -
      'टीवी देखा तू ने?'
      'हां। वही देख रही हूं। चाय पियेगी तो आ जा।'
      'कुछ न्‍यूज-व्‍यूज।'
      'कुछ नहीं।'
      'सारे चैनल्‍स देख लिए?'
      'हां, वही पार्टी-पॉलिटिक्‍स, एक्‍सीडेंट, मर्डर, भूत-प्रेत, देवी-देवता, सास-बहू... वैम्पिश फीमेल कैरेक्‍टर्स।'
      'फिर भी, हमें सावधान रहना चाहिए।'
      'वो तो है खासकर इन मुल्‍लाओं से तो सबसे ज्‍यादा।'
      पहली ने गले में पड़े क्रॉस को आंखों से लगाया, फिर चूमा। दूसरी ने टीवी रिमोट को बगल में रखकर 'अरे देवा..' कहती कप के साथ किचन में चली गई। अकेली है तो क्‍या हुआ? खाना तो बनाना ही होगा। कल सुबह फिर से दफ्तर की भी तैयारी करनी है।
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3 comments:

  1. आपकी कहानी १ तारीख को ही पढ़ ली थी .........कहानी में कथ्य की नवीनता और शिल्प का कसाव बांधता है......हार्दिक बधाई

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  2. बहुत अच्छी लगी आपकी कहानी धन्यवाद्

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