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Friday, October 9, 2009

थियेटर की भाषा में तैयार मलयाली नाटक - ‘आयुस्सिंते पुस्तकम‘


नेहरू सेंटर थिएटर फेस्टिवल की अबतक की उपलब्धि के रूप में मलयालम नाटक आयुस्सिंते पुस्तकम (The Book of Life) को माना जा सकता है। रविवर्मा कलानीलयम थिएटर के लिए प्रतिबद्ध लोगों का मंच है। मूलत: की वी बालाकृष्णन के उपन्यास पर आधारित यह नाटक धर्म और इसके आडंबर तले कुचले सेक्स की धारणा की धज्जियां उड़ाता है। कथा केरल के एक गांव के ईसाई समुदाय के लोगों की है। वर्जनाओं और दमित इच्छाओं की सामाजिक, मनोवैज्ञानिक अवधारणा और उनसे उपजे सवाल और हालात इस पूरे नाटक का आधार है। हर धर्म त्याग, सादगी, मोक्ष का पाठ पढ़ाता है, मगर सेक्स को लेकर हर कोई दुनिया भर की कुंठाओं से ग्रस्त रहता है, नतीजन धर्म से बंधा समाज सेक्स के नाम पर सारे आडंबर रचता है। उसे पाप की संज्ञा देता है। लेखक का सवाल है कि पाप क्या है? और वह यह कहता है कि बाइबल से ही इसकी शुरुआत मानी जा सकती है। धर्म, लोग, समाज की आंखों में इसके स्वरूप बदलते चलते हैं, इसकी व्याख्याएं बदलती रहती हैं। सेक्स आज भी हमारे समाज के लिए वर्जनीय है।
नाटक के निर्देशक सुवीरन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के 2000 के पास आउट हैं। सुवीरन नाटक के बारे में बताते हुए कहते हैं कि भाषा इसकी दीवार नहीं होगी, क्योंकि इसे थिएटर की भाषा में तैयार किया गया है। उनकी बातों में, उनकी आंखों में अपने काम के प्रति गहरा विश्वास नाटक देखते हुए चरितार्थ होता है। इतने बिंब, भाव, शैली इस नाटक में प्रयुक्त हैं, एक दृश्य से दूसरे दृश्‍य तक जाने में इतने सारे फॉर्मों का प्रयोग है कि आपके मुंह से बरबस वाह निकल आये! इस नाटक को महिंद्रा एक्सीलेंसी इन थिएटर अवार्ड मिल चुका है। इसके कलाकार थिएटर से नहीं हैं, बल्कि अपने जीवनयापन के लिए अलग-अलग काम करते हुए बाक़ी समय में थिएटर करते हैं। मगर कलाकारों की प्रस्तुति को देख कर यह क़तई नहीं कहा जा सकता कि ये शौक़‍िया थिएटर कलाकार हैं। इसके बावजूद सुवीरन कहते हैं कि वे लोग भी अब मोहनलाल जैसे प्रसिद्ध एक्टरों को ले कर नाटक करने की सोच रहे हैं, ताकि प्रसिद्धि और पैसा दोनों आये। मगर सुवीरन, तब यह मौलिकपन और यह प्रयोग शायद छूट न जाए।
कहानी के केंद्र में 10 वर्षीय योहान्नन है, जिसका दादा पाओलो अपने ही पड़ोस की एक बच्ची का यौन शोषण करता है। इस घटना से क्षुब्ध उसका बेटा थोमा उसे मारता है और इस बात से आहत और उपेक्षित पाओलो आत्महत्या कर लेता है। योहान्नन दादा की आत्महत्या की वजह समझ नहीं पाता है। बाद में उसके सामने एक के बाद एक सभी यौन से संबंधित घटनाएं घतती हैं और वह इस भ्रम में पड़ जाता है कि आखिर सेक्स, प्यार और पाप क्या है? गांव का पुजारी एक लड़की से प्यार करता है, मगर उसे शादी की इजाज़त नहीं। हाल ही में हुई विधवा सारा गांव के बड़े पुजारी से मिलती है। इसे देख अब बड़ा हो चुका योहान्नन एक गहरी उत्सुकता से भर जाता है और पहली बार वह इस वर्जित फल से साक्षात्कार करता है। अब पिता थोमा इसे जान कर पुजारी को इसकी सूचना देता है, जो योहान्नन से इतना भर ही पूछता है कि “क्या तुम उसके साथ सोये थे?” इस बात से आहत योहान्नन पिता पर हाथ उठा देता है और पिता को याद आता है, अपने द्वारा अपने पिता पर उठाया हाथ। इतनी ख़ूबसूरती और इतने प्रतीकात्मक तरीके से इसे सामने लाया गया कि बिना संवाद के सब कुछ अभिव्यक्त हो जाता है। सेक्स के प्रतीक के रूप में सेब और सांप का उपयोग बहुत प्रतीकात्मक है। पिता द्वारा सारा की हत्या फिर से एक सवाल पैदा करता है कि पापी को नष्ट किया या पाप को? क्या पापी को मार देने से पाप का अंत हो जाता है? यह भी बड़ी शिद्दत से उभरता है कि पापी को मारने में, उसे सज़ा देने में हम इतने उतावले हो जाते हैं कि भूल जाते हैं कि हमने भी जीवन में कई-कई पाप किये होते हैं। जिसने पाप न किया हो, वह पहला पत्थर मारे।
दादा पाओलो की भूमिका में सुधीर सीके ने जान डाल दी थी। अन्य सभी कलाकार अपनी अपनी भूमिकाओं में बेहद संतुलित थे। थिएटर की जो सबसे बड़ी खूबी है कि कम से कम शब्दों में और भाव, शिल्प, फॉर्म, प्रतीक आदि के माध्यम से अपनी बात कही जाए, इसका खूब दोहन इस नाटक में किया गया। क्या आप यक़ीन कर सकते हैं कि नाटक की थीम सेक्स पर आधारित होने और दादा पाओलो के एक नग्न दृश्य के बावजूद न कहीं अश्लीलता थी, न कहीं हल्कापन। प्रिया की वेशभूषा बेहद सटीक थी। वलसाराज का प्रकाश संयोजन तो इतना सधा हुआ था कि एक दृश्य से दूसरे दृश्य या एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जाते हुए उसके सटीकपन पर मुग्ध ही हुआ जा सकता था।
सुनील सीके की मंच सज्जा भी बहुत प्रयोगात्मक थी। बारिश का दृश्य कह लें या उसे प्रतीक के रूप में अपने मन की बहती इच्छा की धार! पानी ऊपर से धार की तरह बह रहा है। पात्र उस पानी में भीग रहे हैं। मन का नर्तन मंच के बीचोबीच रखे रिवॉल्विंग मंच के नर्तन के साथ कई कई परतें और आयाम खोलता था। यह नाटक इस बार के नेहरु सेंटर थिएटर फेस्टिवल मे खेले गये अब तक के नाटकों के बीच की उपलब्धि कही जा सकती है।
(पुनश्‍च : मुंबई के नाटक परिदृश्य में कल हॉल में उपस्थिति न के बराबर रही। इसका एक कारण तो इसका मलयालम में होना था। दूसरी वजह थी, ग्लैमरस लोगों का अभाव। सामने की वीआईपी दीर्घा लगभग खाली थी। हिंदी के पत्रकार तो वैसे भी नहीं दिखते, जो इक्के-दुक्के दिखते हैं, वे भी नहीं दिखे। मेरा मानना है कि थिएटर की अपनी ज़बान होती है और जो थिएटर के प्रेमी हैं, उन्हें थिएटर की भाषा का भी प्रेमी होना चाहिए। जो इस नाटक को देखने नहीं आये, वे नहीं जानते कि उन्होंने एक अच्छा नाटक देखने का मौका गंवा दिया। एक महिला मेरे पास आयीं कि इसकी सिनॉप्सिस कहां से मिल सकती है, क्योंकि भाषा समझ में नहीं आ पाएगी। ग्रुप को इस ओर तनिक ध्यान देना चाहिए। खास कर उन जगहों पर, जहां दर्शक आपके नाटक की भाषा से परिचित न हों।)
http://mohallalive।com/2009/10/08/nehru-centre-theatre-festival-5th-day/
http://www.artnewsweekly.com/substory.aspx?MSectionId=1&main=1&SectionId=31&storyID=94

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