http://mohallalive.com/2009/10/19/nehru-centre-theatre-festival-last-day-last-play/#comments
रवींद्रनाथ टैगोर की नारी प्रधान कहानी हो तो दिल अपने आप भर आता है। और उस पर जब असम के लोक रंग का बाना हो, तो उसका असर दुगना होते देर नहीं लगती। नेहरु सेंटर थिएटर फेस्टिवल के आखिरी दिन दोपहर दो बजे मराठी नाटक “टेंग्शेच्या स्व्पनात ट्रेन” था और शाम सात बाजे असम के सीगल ग्रुप का नाटक “मध्यबर्तिनी”। असम के नाटक की खासियत है उसका लोकरंग तत्व। “मध्यबर्तिनी” भी इसका अपवाद नहीं था। अपनी बीमारी से त्रस्त और पति को दिन रात अपनी सेवा में लगा देख आत्मग्लानि से भरी निस्संतान हरासुंदरी अपने विवाह के सत्ताइस साल बाद अपने पति निबारन का विवाह शैलबाला नामक युवती से करा देती है, ताकि पति के जीवन में कुछ तो सुख आये। साथ ही सूना घर-आंगन बच्चे की किलकारी से गूंजे। इतना बड़ा त्याग किसी स्त्री से ही संभव है और किसी स्त्री से ही संभव है कि उस त्याग का प्रतिदान वह उसके सर्वस्व को अपने बस में करके ले ले। नयी पत्नी के प्रेम में आसक्त निबारन के संकट के समय नयी, गर्भवती पत्नी उसके संकट को कम नहीं करती, बल्कि गहने के बदले अपनी जान देकर उसका संकट और घर के अवसाद को और भी बढ़ा ही देती है।
नाटक के स्क्रिप्ट पर बात करते हुए हरासुंदरी की भूमिक निभा रही और ग्रुप की महत्वपूर्ण सदस्या भागीरथी बताती हैं कि मूल कथा में कोई भी फेरबदल नहीं किया गया है, लेकिन इसे पूरी तरह से असम के परिप्रेक्ष्य में रखा गया है। इसलिए यहां आप असम का संगीत, असम का लोक रंग पाएंगे। यहां तक कि इसमें सर्कस शैली का भी इस्तेमाल किया गया है और इसके लिए सर्कस खेलनेवाले धूलिया को भी इस नाटक में लाया गया है।
नाटक की प्रयोगधर्मिता अपने चरम पर थी। मन की उलझन और जीवन की आसक्ति में मन का जीवन जाल में फंसने के प्रतीक के रूप में जाल का इतना सुंदर प्रयोग हुआ है कि बस, मुंह से वाह निकल जाए। अब तक नाटक में इतना लंबा प्रणय दृश्य मैंने नहीं देखा था। लेकिन उस प्रणय दृश्य की कलात्मकता देखिए कि आप उसे किसी प्रेम कविता की तरह महसूस करते हैं। आप खुद भी उस प्रणय काव्य का एक भाग बन कर रह जाना चाहेंगे। इतनी सुंदर और अश्लीलता से कोसों दूर प्रेम की विकलता, विह्वलता का ऐसा बांसुरीमय तान कि देह का रेशा-रेशा इस तान में पूरे-पूरे उतर जाने को चाहे। और यह प्रणय दृश्य सवा घंटे के नाटक में दो बार आता है और दोनों ही बार कलात्मकता के शिखर पर। चार स्त्रियां, जिन्हें आप पुतलियां भी कह सकते हैं या जिन्हें आप पात्र के रूप में देख सकते हैं और चार धूलिया नाटक को सूत्रधार और नटी के रूप में कथा को आगे तो बढ़ाते हैं, मगर पारंपरिक सूत्रधार या नटी नहीं रहते।
नाटक के विजुअल्स को असम का लोक नृत्य बहुत बढ़ाता है। भाव से अपने को अभिव्यक्त करना इस नाटक की भी खासियत रही है। मक्खन बिलोती हरासुंदरी मन को मथ रही होती है। हरासुंदरी के रूप में भागीरथी ने अपनी छाप छोड़ी है। असम का अकलुष सौंदर्य आप इस नाटक में देख सकते हैं। बेदाग पवित्र सौंदर्य जैसे छन-छन कर आ रहा था। संगीत में स्थानीय पुट था और वह संगीत इतना मनोरम था कि आप मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकते। गुनाकर देवगोस्वामी की कोरियोग्राफी मन:रंजक थी। सबसे अच्छा लग रहा था महिलाओं का पारंपरिक परिधान – मेखला चादर।
नाटक के निर्देशक बहरुल इस्लाम भी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के 1990 के स्नातक हैं। असमी में इन्होंने चार नाटक लिखे हैं और थिएटर पर एक किताब आयी है। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा स्थापित “मनोहर सिंह स्मृति अवार्ड 2005″ के ये विजेता रहे हैं। इस फेस्टिवल में उनकी अनुपस्थिति खटकी, मगर इनके निर्देशन ने वह कमी पूरी कर दी।
मुख्य पात्र हरासुंदरी के रूप में भागीरथी भी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की ही पास आउट और बहरुल इस्लाम की जीवन संगिनी हैं। मूलत: कर्णाटक की भागीरथी अभी असमी में नाटक कर रही हैं और हिंदी भी बड़े आत्मविश्वास के साथ बोल लेती हैं। मगर स्टेज उदघोषणा के रूप में जिस भी भाषा का इस्तेमाल किया जाए, उसकी शुद्धता पर ध्यान देना ज़रूरी होता है, क्योंकि औपचारिक भाषा में अशुद्धता खटकती है और अकारण ही लोगों को हंसने का मौका देती है।
नाटक चूंकि असमी में था और असमी भाषा में स का प्रयोग नहीं होता, इसलिए हरासुंदरी “हॉराहुंदरी” और शैलबाला “हॉल्लबाला” हो गयी थीं। कुछ देर तो पात्रों के नाम के साथ तालमेल बिठाने में ही लग गया। असमी पर बांग्ला का प्रभाव है, इसलिए अगर असमी से परिचिति न होने पर भी अगर आप बांग्ला जानते हैं तो भाषागत आनंद ले पाते हैं, जैसे मैंने लिया।
यह नाटक हिंदी और असमी दोनों ही भाषा में खेला जाता है। भागीरथी बताती हैं कि हिंदी में खेलते समय हमें अधिक रिहर्सल की ज़रूरत होती है। इस नाटक को देखना थिएटर में गीत, नृत्य, भाव, शैली, मंच सज्जा, नये नये प्रयोग इन सबके साथ एक सुखद अनुभव से जुड़ने जैसा है।
(पुनश्च : दोपहर दो बजे हुए मराठी नाटक में जिस कदर भीड़ थी, उसे देखते हुए लगा था कि इस असमी नाटक में और वह भी अंतिम दिन लोगों का सैलाब रहेगा। मगर अफ़सोस कि इस नाटक में दर्शकों की संख्या और भी नगण्य थी। हिंदी नाटकों की तुलना में इन भाषाई नाटकों (मराठी के अलावा) को मिले लगभग शून्य दर्शक कहीं यह तो नहीं कह रहे कि हम अब प्रयोग के लिए तैयार नहीं? बस आएंगे, नाटक देखेंगे, नाटक में काम कर रहे सेलेब्रेटी के दर्शन करेंगे, थोड़ा हंसेंगे और चल देंगे। अगर ऐसा है, तो थिएटर के लिए यह एक बड़े खतरे की ओर इशारा करता है। उम्मीद थी कि नाटक के अंत में नेहरु सेंटर थिएटर फेस्टिवल के समापन का बीज वक्तव्य यहां के अधिकारियों द्वारा दिया जाएगा, मगर वह नहीं दिया गया। शायद न्यून दर्शक इसके मूल में रहे हों। लेकिन अगर नाटक न्यूनतम संख्या के दर्शकों के लिए हो सकता है तो वक्तव्य भी हो सकता था। आखिर, सौ ही सही, दर्शक तो थे ही न!)
बहुत अच्छा विश्लेषण। बधाई।
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