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Saturday, October 24, 2009

देख भाई देख, ताल ठोंक के देख!

पिछले दिनों मोहल्ला लाइव पर रवीश कुमार ने दो तसवीरें भेजी थीं जिनमें माँ बहन की गाली देते हुए लोगों से उस स्थान पर लघुशंका न कराने के लिए कहा गया था। छम्मक्छल्लो के लिए भी यह एक अनोखी बात थी। उस तस्वीर और उस पर आधारित लेख पर यह प्रतिलेख। मोहल्ला लाइव पर भी यह है। लिंक है- http://mohallalive.com/2009/10/24/vibha-rani-react-on-ravish-mobile-photo/ पढ़ें और अपनी राय दें।

हा हा हा हा! छम्मक्छल्लो की हंसी रुक नहीं रही. वह दाद पर दाद दे रही है. वाह रवीश जी वाह और वाह अविनाश जी वाह! और वाह वाह इस लघुशंका निषेध के लेखक जी के लिए भी. मान लीजिए इन्हें भी लेखक. इतने अभिनव विचार तो किसी बडे व महान लेखक के पास भी नहीं होंगे कि वह इतने मर्दाना अंदाज़ में देह की प्राकृतिक ज़रूरत से फारिग होने पर किसी को लानत मलामत भेजे. जिन साहबानों ने लिखा होगा, वे वाकई ओरिजिनल राइटिंग और थॉट के लिए पुरस्कार के पात्र हैं. यह भी बेखटके और बेखौफ कहा जा सकता है कि इतनी उच्च और विरल लेखनी किसी साहबान की ही होगी, किसी साहिबा की नहीं.
देखिए, आप सब नाहक माथापच्ची कर रहे हैं. छम्मक्छल्लो ने पहले भी लिखा था कि गाली देना हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और उसमें मां बहन का इस्तेमाल हमारा आपद धर्म. इससे आप हमें बेदखल नहीं कर सकते. दूसरे हमारे भीति भाव को तो तुलसीदास जी भी अपने समय में अनुभव कर गए थे, इसीलिए लिख भी गये कि ‘बिन भय होंहि न प्रीति’ तो, जबतक आप किसी बात का भय नहीं दिखाएंगे, लोग आपकी बात नहीं मानेंगे. गांधी जी के सत्य, अहिंसा और प्रेम के मार्ग पर चलते हुए किसी से अनुरोध वाली भाषा में कहेंगे कि भाई साहब, यहां पर अपनी शंका का समाधान मत करें तो वह पलट कर आपसे ही कह बैठेगा कि “क्यों? यह ज़मीन क्या तेरे बाप की है?” फिर आप क्या कर लेंगे?
यह हमारा देश है और हमें हर तरह की अभिव्यक्ति की आज़ादी मिली हुई है, सो हम अपनी आज़ादी का प्रदर्शन कर रहे हैं. छम्मकछल्लो जब छोटी थी तो देखती थी कि शहर के कुछ लडके और मर्द ऐसे होते थे, जिन्हें किसी लडकी या औरत को देखते ही अपनी मर्दानगी को आज़ादी देने की ऐसी सख्त ज़रूरत आन पडती थी कि देह को वस्त्र से आज़ाद किए बगैर उनकी आत्मा को चैन नही आता था. ऐसी आज़ादी का प्रदर्शन महिलाओं और स्त्रियों के सामने ही किया जाता है और वे सब अपनी इस आज़ादी का भरपूर इस्तेमाल बेखटके और निस्संकोच करते थे. अब जब आप ऐसी वैसी ज़बान में लिखेंगे तो हो सकता है, लोग डर जाएं या तनिक शर्मा ही जाएं. वो कहते हैं ना कि नंगे से तो ख़ुदा भी डरता है.
डरने को तो लोग भगवान से भी डरते हैं और नहीं भी डरते. अब बेचारे भगवान को भी ऐसे सार्वजनिक जगह पर अपनी अपनी छवियों की प्रदर्शनी करनी होती है ताकि लोग उन जगहों पर थूके नहीं, अपनी लघु या दीर्घ शंकाओं का समाधान ना करें. असली सर्व धर्म सम भाव यहीं पर दिखता है. असली सर्व धर्म सम डर भी. एक धर्म के भगवान को लगाओगे तो दूसरे धर्मवाले उसपर अपनी शारीरिक क्षमता की मिसाल छोड देंगे. सो वहां राम भी हैं, वाहे गुरु भी, सांईबाबा भी हैं, यीशू मसीह भी, काबा भी है और रजनीश भी.
नियम कानून की बात ना करें. उसे तोडने में हमसे सिद्धहस्त और कौन हो सकता है? नियम हमारे यहां बनाए ही इसीलिए जाते हैं कि उसे तत्क्षण कैसे तोड दिया जाए? अब गाली देना सभ्य समाज की निशानी नहीं मानी जाती है. तो हमें आप बताइये कि हम सभ्य हैं क्या? अगर हम सभ्य ही हुए रहते तो गाली को भूल ना चुके होते? सभ्य ही होते तो राह चलती लडकी, महिला को उठा कर उसके साथ रेप करने से बाज़ ना आते? सभ्य ही होते तो दिन दहाडे किसी का खून होते देख उसके रक्षार्थ उठते नहीं? सभ्य ही होते तो किसी भी औरत को दिन दहाडे नग्न करके घुमाने की घटना पर चुल्लू भर पानी में डूब ना जाते? सभ्य ही होते तो धर्म, जाति, वर्ण आदि के नाम पर चल रहे खूंरेजी खेल से बाज़ ना आते? काहे को सभ्य भई? और किसलिए हों? हमारे देश के संविधान में कहीं यह लिखा हुआ है कि हमें सभ्य होना ही है?
और छम्मकछल्लो को तो और भी खुशी हो रही है. कम से कम इस प्रसंग में देश की आधी आबादी को तो मुक्ति मिल गई. भई, यह आधी आबादी मज़ाल है जो बीच सडक पर दिन दहाडे अपनी नैसर्गिक ज़रूरत पूरी करने के लिए बैठ जाएं? उनकी ही तरह उनकी अनिवार्य प्राकृतिक ज़रूरतें भी देह के किसी कोने में सिमटती, घुटती कई कई बीमारियों तक को जन्म दे देती हैं. वे तो एक गुपचुप सा कोना तलाशती हैं, फुसफुसाकर अपनी ज़रूरत का बयां करती हैं. निपट आने पर कुछ क्षण नज़रें नहीं उठातीं.
छम्मकछल्लो 20 साल पहले दिल्ली में थी. तब की नौकरी में उसे तमाम सरकारी दफ्तरों, उपक्रमों व बैंकों में सम्पर्क कार्य करना होता था. वह नई थी, इसलिए उसकी एक दोस्त उसे अपने साथ जगह जगह ले जा रही थी. तब नेहरु प्लेस भी नया ही था. उन दोनों को घूमते घूमते सुबह से दोपहर हो गई. कहीं किसी जगह प्रसाधन का कोई बोर्ड नहीं दिखा. उन दोनों का बुरा हाल, ज़रूरत से निपटने के लिए भी और शर्म से भी कि कैसे किसी आदमी से पूछें (कोई औरत नज़र नहीं आ रही थी). अंत में उसकी दोस्त ने एक आदमी से अंग्रेजी में पूछा (अंग्रेजी में भदेसपन थोडा कम आता है ना). उस सज्जन ने कहा कि उनके दफ्तर में अलग से महिलाओं के लिए कोई प्रसाधन नहीं है. अंत में वे दोनों उसी प्रसाधन के इस्तेमाल के लिए मज़बूर हुईं और जब बाहर निकलीं तब सर ऐसे झुके हुए थे कि उन सज्जन का चेहरा देखे बगैर ही उन्हें धन्यवाद करके भाग लीं. रवीश जी ने जो तस्वीरें भेजीं हैं, उसमें क्रिया भी पुल्लिंग है. इसलिए कम से कम छम्मकछल्लो को तो सुकून मिला कि यह उन जैसों के लिए नहीं है. हां, अब गाली में यह आधी आबादी है तो इसके लिए क्या

4 comments:

  1. आपका तीखे तेवरों को अपने शब्दों में समेंट बेखटके अपनी बात को खरे-खरे कहना मुझे बहुत अच्छा लगता है लेकिन अगर आप रवीश जी वाली पोस्ट का लिंक भी दे देतीं तो बात ज़रा ज़्यादा ढंग से समझ आती

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  2. एकदम छमकछल्लो इस्टाइल। हिंदु्स्तान के मर्दों के लिए जैसे उपनयन होता है उसी तरह कोई मूतन संस्कार होना चाहिए। एक बात और है। नैसर्गिक क्रियाओं के लिए हमारे शहरों में जगह तय नहीं की गई है। लिहाजा लोग तय करने लगते हैं। लोग मतलब ज़्यादातर मर्द। वैसे दिल्ली के बस स्टैंडों के पीछे महिलाओं को फारिग होते देखा है। मजबूरियां समझ में आती हैं। कोसने से नागरिक समाज नहीं बनता। कनाट प्लेस में जब कारपोरेट टाइप के मूत्रालय बने तो वहां से गुज़रने वाले लोग राहत महसूस करते हैं। उनके दिमाग में बस गया है कि सीपी में तो मिल ही जाएगा।

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  3. did u mean wahan ram bhi hain, waheguru bhi, isa masih aur mohammad bhi if Chammakchallo is so bebak why this political correctness

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