http://mohallalive.com/2009/10/07/nehru-centre-theatre-festival-third-day/
http://www.artnewsweekly.com/substory.aspx?MSectionId=1&left=1&SectionId=31&storyID=८७
नेहरू सेंटर थिएटर फेस्टिवल के तीसरे दिन नसीरुद्दीन शाह के थिएटर ग्रुप “मोटली” ने “इस्मत आपा के नाम – II” प्रस्तुत किया। नाटक प्रस्तुत करने से पहले नसीरुद्दीन शाह अपने ग्रुप और नाटक का तआर्रुफ करने के लिए आये। उन्होंने बहुत अच्छी बात कही कि ऐसा नहीं है कि इनकी रचनाएं या ये खुद किसी परिचय की मोहताज़ हैं। मगर उनको इस रूप में याद करना उनके प्रति हमारी श्रद्धांजलि है। दूसरी महत्व की बात कही कि हमारी आज की पीढी अपने लेखकों के बारे में कम जानती है और हमारी कोशिश है कि ऐसे महान लेखकों की कृतियों को हम दर्शकों तक ले कर आएं।
स्क्रिप्ट दमदार हो तो वह सुनने में भी देखने जैसा लुत्फ देती है। इस्मता चुग़ताई उर्दू या यों कह लें कि हिंदुस्तानी ज़बान की ऐसी अदीबा रही हैं कि उनकी लेखनी से लफ्ज़ जैसे अपने आप बन कर, संवर कर, लरज लरज कर बाहर आते हैं। तरक्कीपसंद इस्मत आपा ने बहुत कुछ लिखा। कहानियां, फिल्में, उपन्यास। फिल्मों में काम भी किया। अपने समय की वे बेहद तरक्कीपसंद अदीबा थीं, जिनसे मर्द लेखक भी ख़ौफ खाते थे। उनकी अपनी तरक़्क़ीपसंदगी का आलम यह था कि अपनी आखिरी ख्वाहिश मे उन्होंने कहा था कि उनके मरने के बाद उन्हें दफनाने के बदले उन्हें जला दिया जाए और उनकी ख़ाक़ को गंगा के सुपुर्द कर दिया जाए। यह एक ऐसा क़दम था, जिसने मुंबई के बड़े से बडे तरक़्क़ीपसंद साहित्यकारों और लोगों को हिला कर रख दिया था। नेहरू और गांधी के प्रति तो वे श्रद्धा भाव से कूट कूट कर भरी हुई थीं। यह हमारे अदब की बदक़िस्मती है कि जब भी उस पर कोई नये तरीक़े से सोचता है तो उस पर लानत-मलामत की जाती है। इस्मत आपा भी गुलेरी जी की तरह एक ही कहानी “लिहाफ” से जानी जाने लगीं और यह कहानी उनके अदब के साथ-साथ उनके जीवन का भी एक अजीबोगरीब पन्ना बनकर रह गयी। उन पर इल्ज़ाम लगे कि वे फाहश लेखन करती हैं। मंटो की तरह उन पर इसके लिए मुकदमा तक चला।
यह सब लिखने के पीछे मक़सद महज़ इतना था कि आप तनिक इस्मत आपा की खुसूसियतों से वाक़िफ हो लें। यह हिंदुस्तान का भी दुर्भाग्य रहा है कि यहां अपने ही नामचीन लेखकों की क़द्र नहीं, क्योंकि इन नामचीन लेखकों ने अपनी-अपनी मादरी ज़बान में लिखना ज़्यादा मुनासिब समझा और अंग्रेजों के मारे हम अभी तक अपने को अंग्रेज कहलाने और अंग्रेजी पढ़ने, लिखने, बोलने में बड़े गुमान में भर जाते हैं।
कहानी का मंचन हिंदी थिएटर के लिए कोई नयी बात नहीं है। देवेंद्रराज अंकुर को तो कहानी मंचन का विशेषज्ञ ही माना जाता है। प्रसिद्ध कथाकारों की कृतियों पर काम करने में एक आश्वस्ति स्क्रिप्ट की रहती है। क़िस्सागोई तो वैसे भी हमें बचपन से विरासत में मिल जाती है। इसलिए गये कुछ अरसे से थिएटरदानों ने हिंदी, उर्दू आदि के लेखकों की कहानियों की थिएट्रिकल प्रस्तुति करनी शुरू की है। ‘मोटली’ भी इनमें से एक है। मोटली की “इस्मत मंटो हाज़िर हों” और “इस्मत आपा के नाम” में सादत हसन मंटो और इस्मत चुग़ताई के अफ़सानों की रंगमंचीय प्रस्तुति है।
“इस्मत आपा के नाम – II” में इस्मत आपा के 3 अफसानों “अमरबेल” “नन्हीं की नानी” और “दो हाथ” की नाटकीय प्रस्तुति की गयी, जिन्हें क्रमश: मनोज पाहवा, लवलीन मिश्रा और सीमा पाहवा ने प्रस्तुत किया। अफ़सानागोई करते हुए पात्र में बदल जाना और फिर पात्र से अफ़सानागो बन जाने की इस अंतर्यात्रा को इन तीनों कलाकारों ने बडी कुशलता से पेश किया। सभी अफसाने इतने दमदार थे और उनमें समाज और उसकी रवायतों के प्रति इतना तंज भरा हुआ था कि सभी कहानियां व्यंग्य की शक्ल लेते हुए कभी टीस तो कभी हास्य पैदा कर रहे थे। सभी कलाकार अपनी बयानबाज़ी और अभिनय में सहज थे। लवलीन और सीमा तो आज भी दूरदर्शन के पहले सोप ‘हमलोग” की बड़की और छुटकी के रूप में ही जाने जाते हैं। तब सीमा पाहवा सीमा भार्गव के नाम से जानी जाती थीं। इसका उदाहरण मंच पर उनके प्रवेश के साथ ही मिल गया, जब दर्शकों ने उन्हें छुटकी और बड़की कहना शुरू किया।
“इस्मत आपा के नाम – II” के अफ़सानों का परिवेश मुख्य रूप से मुस्लिम है, इसलिए मंच पर भी वह परिवेश देने की कोशिश की गयी थी। सादी, सीधी और सरल उर्दू सभी को समझ में आयी और सभी ने इसका पुरअसर लुत्फ उठाया। प्रकाश व्यवस्था भी बहुत तेज़ और आंखों को चुभनेवाली नहीं थी। बीच-बीच में एकाध ठुमरी के चंद बोलों ने नाटक में एक अलग ही रस घोल दिया।
नसीरुद्दीन शाह ने कला फिल्मों से काम आरंभ करके व्यावसायिक फिल्मों में आ कर भी नाम कमाया। वे राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के चंद गिने चुने लोगों में से हैं, जो प्रसिद्धि के इतने ऊंचे मुकाम पर पहुंचने के बाद फिर से नाटक की ओर लौटे हैं और नाटक के प्रति गंभीर हैं। यह गंभीरता उनकी शख्सियत के साथ-साथ उनके नाट्य निर्देशन में भी दिखती है। कभी मौका मिले तो आप ये प्रस्तुतियां ज़रूर देखें और हां, इनलोगों को पढ़ें भी।
(पुन : “इस्मत आपा के नाम – II” नाटक को देखने के बाद एक दर्शक ने बहुत लंबी सांस छोडी। दूसरे ने इसकी वजह पूछी। उसने बताया, कल के ‘लैला मजनूं’ के बाद मुझे लगा था कि उर्दू इतनी ही भारी-भारी लैंग्वेज होती होगी। दूसरे दर्शक ने बताया कि कल के भारी भारी सेट, कॉस्ट्यूम, ज़बान, मौसीक़ी से अलहदा आज का नाटक कितना हल्का और दिल तक पहुंचनेवाला लग रहा है। बिचारे मुंबईकर, जीवन की आपाधापी में इस क़ाबिल नहीं रह गये कि कोई भारी सा कुछ भी अपने ऊपर ले सकें!)
आपका लिखा हुआ पढना अच्छा लगता है
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