खगोलशास्त्र वर्ष के उपलक्ष्य पर नेहरु सेंटर, मुंबई ने 30 सितम्बर, 2009 को बर्टोल्ड ब्रेख्त लिखित "गैलिलियो" नाटक की प्रस्तुति की. गैलिलियो इतालवी भौतिकशास्त्री और खगोलशास्त्री थे, जिन्होंने उस समय की मान्यता के खिलाफ अपने सिद्धान्त प्रस्तुत किए थे कि चांद चिकना नहीं, बल्कि रुखडा है और कोपरनिकस की मान्यता को सही ठहराया कि सूर्य स्थिर है और पृथवी और अन्य ग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं. यह उस समय के कैथोलिक चर्च धार्मिक संगठनों की मान्यता के खिलाफ था. गैलिलियो का बहुत कडा विरोध हुआ. उन पर इतना दवाब बनाया गया कि अंत में उन्हें अपने शब्द वापस लेने पडे. उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा हुई. गैलिलियो की मृत्यु के लगभग सौ साल बाद यही सिद्धांत मान्य हुआ और इस तरह से गैलिलियो ने खगोल जगत को सर्वथा एक नई खोज का उपहार दिया.
मुंबई का नेहरु सेंटर पं. जवाहरलाल नेहरु के "डिस्कवरी ऑफ इंडिया" के साथ साथ अपनी आर्ट गैलरी व तारांगण के लिए मशहूर है. सैलानियों के लिए यह एक आकर्षण का केन्द्र है. साथ ही इसके अपने ऑडीटोरियम हैं, जहां विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. इस लिहाज़ से गैलिलियो पर नाटक करवा कर नेहरु सेंटर ने बहुत ही सराहनीय कार्य किया है.
इस नाटक को शिवदास घोडगे ने निर्देशित किया है. शिवदास घोडगे भारतीय नाट्य विद्यालय के बहुत वरिष्ठ पास आउट हैं. नाट्य निर्देशन के क्षेत्र में वे एक जाना- पहचाना नाम हैं. मगर इस नाटक में कसे निर्देशन की कमी बेहद खली. मराठी नाटक आज भी लम्बी अवधि के खेले जाते हैं, मगर हिन्दी में अब लम्बी अवधि के नाटक बहुत ही खास स्थिति में ही खेले जाते हैं. कसे निर्देशन के अभाव में नाटक की अवधि ने दर्शकों को जम्हाइयां लेने पर मज़बूर कर दिया. कई दर्शकों को तो मध्यांतर में ही नाटक खत्म सा लगा.
इस नाटक को मुंबई विश्वविद्यालय के अकेडेमी ऑफ थिएटर के छात्रों से करवाया गया था. हॉल में उपस्थित छात्रों की संख्या भी इसका प्रमाण थी. गैलिलियो की मुख्य भूमिका में अशोक लोखंडे थे. अशोक लोखंडे मंजे हुए कलाकार हैं और वहां उपस्थित कमलाकर सोनटक्के ने बहुत सही कहा कि एक केन्द्रीय भूमिका में बहुत दिनों के बाद अशोक लोखंडे को देखना एक सुखद अनुभव रहा. लेकिन, अफसोस यह रहा कि अशोक लोखंडे नाटक के अंतिम चरण के 20-25 मिनट को छोड कर सारे समय अशोक लोखंडे ही बने रहे. कलाकार का यह रूप किसी भी प्रस्तुति को कमज़ोर करने के लिए काफी होता है.
बर्टोल्ड ब्रेख्त लिखित "गैलिलियो" नाटक का हिन्दी अनुवाद वी के शर्मा (पास पर नाम व्ही के शर्मा) का था. भाषा आज की हिन्दी से मेल नहीं खाती, जिसे आज की हिन्दी के अनुरूप करने का निर्देशकीय समाधान होना चाहिये था. विदेशी पृष्ठभूमि, पात्र विदेशी, चरित्राँकन विदेशी, विषय गम्भीर- ऐसे में भाषा का रूखापन और स्क्रिप्ट का ढीलापन इसे और नीरस बनाता गया. उस पर से कलाकारों के उच्चारण. फिल्मों की तरह ही नाटकों में भी भाषा पर काम नहीं किया जाता. लगभग सभी कलाकार गैर हिन्दी भाषी थे, इसलिए उनकी अपनी मातृभाषा का इतना गहरा असर सम्वाद अदायगी पर था कि कई बार कोफ्त होने लगती थी. ऐसे में उर्दू के तलफ्फुज़ की तो बात ही छोड दीजिए. स्क्रिप्ट और सम्वाद अदायगी नाटक ही क्या, किसी भी फिल्म, टीवी आदि के लिए भी उतना ही ज़रूरी है. कसी स्क्रिप्ट पढने या सुनने में भी पूरे नाट्क का आनन्द दे देती है.
सबसे बडी दिक़्क़त यह रही कि यह नाटक सम्वेदना के स्तर तक पहुंच नहीं पाया, जबकि वही उसके मूल में था. आखिर ऐसी क्या स्थितियां पैदा की गईं कि गैलिलियो को अपना वक्तव्य् बदलना पडा? आखिर पोप, पादरी, धर्म संस्थानो, चर्चों का किस तरह का वर्चस्व था, जो एक वैज्ञानिक को झुकने पर बाध्य कर देता है. यह दोनो दो ध्रुव थे, जिनकी दो अलग-अलग धाराएं थीं. नाटक में इन दोनों ध्रुवों का खिंचाव इतना सतही था कि दृश्य देखते समय कहीं कोई बेचैनी नहीं हुई. मतलब, नाटक का उतार-चढाव सतह पर ही चलता रहा.
कलकार सभी या तो छात्र थे या अकादमी से बस पास हो कर निकले थे. तो बिचारे बच्चे अपनी भूमिका में लगे हुए थे. अपनी वेशभूषा में कई असहज दीखे. पीरियड ड्रामा के कॉस्ट्यूम पहन कर काम करने के लिए उसका अभ्यास भी ज़रूरी है, जिसकी कमी दीखी. गनीमत थी कि मंच पर भारी भारी प्रॉप्स नहीं थे. सह निर्देशन में स्मिता ठाकूर और सुलेखा दोशी के नाम रहे. इन्हें नाटक की टाइमिंग का भी अन्दाज़ा नहीं रहा और पर्दा गिरने से पहले ही वे स्टेज पर आ खडी हुईं. और उनकी उद्घोषणा ने तो नाटक का रहा- सहा स्वाद भी बिगाड दिया. अकादमी के छात्रों को इस पर तो ध्यान देना ही चाहिये, शिक्षकों को भी इस पर सोचने की ज़रूरत है.
संगीत अमोद भट्ट का था और वे अपना प्रभाव छोड सके. गायक वृन्द की आवाज़ में पता नहीं क्यों अपेक्षित उमंग का अभाव दीखा. प्रकाश व्यवस्था अच्छी थी. खास कर सूरज का गोला सूरज, छंद, धरती, ब्रह्मांड सब कुछ बनकर प्रभावित तो करता था ही, दर्शकों तक वह अपनी तरंग भी छोड जाता था. बावज़ूद इन सबके, यह नाटक अति महत्वपूर्ण है. इसलिए इसे तनिक और सरल और कस-मांज कर दिखाया जाना चाहिये- हर वर्ग और हर उम्र के लोगों तक, क्योंकि थिएटर केवल मनोरंजन का नहीं, शिक्षा और विकास का सबसे बडा माध्यम है.
बहुत अच्छी समीक्षा
ReplyDeleteभला इतनी साफ़ किस मीडिया रूप में मिलती ? आपका शुक्रिया !