चुनाव नज़दीक है, बल्कि देश के कई भागों में चुनाव शुरू भी हो चुके हैं। छाम्माक्छाल्लो के शहर मुम्बई में यह ३० अप्रैल को है। छाम्माकछाल्लो इस विचार में डूबी हुई है की किसे वोट दे? यह मात्र उसी की नहीं, बल्कि हर आम मतदाता की स्थिति है। हर मतदाता आज अपने आपसे पूछ रहा है की क्या हम भारतीय हैं? क्या हम भारतीयता का अर्थ समझते हैं? ऐसे कौन से तत्व हैं जो हमें अपने भीतर भारतीय होने का गौरव बोध कराये और हम भारतीय मूल्यों, परम्पराओं, प्रतीकों, संस्कृति आदि के असली और नकली रूप में भेद करा सकें।
देश सदियों से गुलाम रहा है। देखा जाए तो हम अभी भी मानसिक रूप से गुलाम हैं। ऐसा नहीं रहता तो आज अपने देश में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं की ऎसी हालत नहीं रहती। लोगों के दिमाग में यह बात बिठा नहीं दी जाती की अन्ग्रेज़ी जाने बिना कोई भी भारतीय तरक्की नहीं कर सकता। अपने ही परिधान हमें भार स्वरूप नहीं लगते। नेकटाई आन-बाण-शान का प्रतीक नहीं मानी जाती। छुरी-कांटे से ही खाना असली नफासत नहीं मानी जाती। भारतीय अतीत का केवल गुणगान नहीं किया जता, बल्कि उसे मनसा, वाचा, कर्मणा व्यवहार में लाया जता। भारतीयता महज एक फैंसी शब्द बनाकर नहीं रह गया होता। भारतीय संस्कृति के नाम पर हम झूठे रीति-रिवाजों और साद-गल चुकी मान्यताओं को नहीं धोते रहते। स्त्री को देवी माने जाने वाले देश में बेटी बचाओ जैसे नारे नहीं खोजने पड़ते। स्वयंवर की प्रथा वाले देश में मोरल पुलिसिंग के नाम पर लड़कियों के साथ वहशियाना सलूक नहीं किए जाते। रूखी-सूखी खाई के धंधा पानी पीव वाले देश में दहेज़ के नाम पर मासूमों की बलि नहीं ली जाती। हर स्त्री को लड़की को माँ-बहन-बेटी समझनेवाले देश में अबोध बच्चियां, दिन-रात यौन-पिपासा की पूर्ति का माध्यम नहीं बनातीं। भाई-भाई का प्रेम कहीं पिछवाडे पडा अन्तिम साँसे नहीं ले रहा होता। जिस देश को आजाद कराने मैं हमारे लाखों लोग शहीद हुए, उनके घर-परिवार तबाह हुए, ऎसी मशक्कत और मुशिक्लात से हासिल आजादी को अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए डाव पर नही लगाए होते। अपनी तिजोरी भरने में नहीं लगे होते। कृषि प्रधान देश में खेती की इतनी बुरी हालत नहीं हुई होती की किसान आत्म ह्त्या करें। किसान, मजदूर व् सर्वहाराओं के प्रति हमारे मन में इतनी उपेक्षा के भाव न भरे होते। नौकरी या सफ़ेद पोश कर्म हमारे बेहतर जीवन स्टार के प्रतिमान न मान लिए जाते। अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का पर्यावरण के बिगड़ जाने की हद तक दोहन नहीं करते। वसुधैव कुटुम्बकम वाले हमारे देश में धर्म, भाषा, जाती के आधार पर खून-खराबे नहीं होते। देश की बुनियादी ज़रूरत -सुरक्षा के नाम पर हम दिन- रात दंगे और आतंक की भट्टी में नहीं झोंक दिए जाते। अपने ही राष्ट्र-गान और गौरव के प्रतीक उपमान साम्राज्यवाद की आंच में नहीं झुलस रहे होते।
हमें तय करना है की क्या ये सब जो ऊपर कहे गए हैं, हमारे भी व्यवहार में मौजूद हैं? और अगर ये सब मौजूद हैं तो क्या इन सबके बाद भी हमें ख़ुद को एक सच्चा भारतीय कहलाने में गौरव का अनुभव होता है? यदि हाँ तो हम स्वयं यह तय करें की हम कैसे भारतीय हैं? और यदि नहीं तो इन सबसे निजात पाने के क्या उपाय हैं? कैसे मन से गुलामी की जंजीर तोडी जाए, नफ़रत को मिटाया जाए, स्व-सम्मान को आगे बढाया जाए? मानव-माना का एक दूसरे पर विशवास कायम किया जाए? देश के निर्माण की फ़िर से यह बेला है। अपने देश का अच्छा कल हमें ही बनाना है। यह सब कैसे होगा, छाम्माक्छाल्लो इस विचार में डूबी हुई है। आप सब भी सोचें और बताएं।
आपने तो बडी गम्भीर बातें पूछ डालीं। समझ में नहीं आ रहा क्या जवाब दिया जाए।
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S.B.A.
TSALIIM.