पटना जेल में जब डा राज्नेंद्र प्रसाद की सेहत काफी सुधर गई, तब उनहोंने किताब लिखने का काम अपने हाथ में ले लिया। पहली पुस्तक अन्ग्रेज़ी में लिखी गई थी, पाकिस्तान की मांग को लेकर। अपनी आत्मकथा में वे लिखते हैं-" कुछ ऎसी पुस्तकें, जो पाकिस्तान के समर्थन में लिखी गई थीं, मंगाई। उनको पढ़ने के बाद विचार हुआ की जिस आधार पर यह मांग पेश की जाती है, वह कहाँ तक ठीक है? यह भी देखना है की मुस्लिम लीग पाकिस्तान किसे कहती है? उसकी मांग यदि कोई मान ले तो उसे क्या देना होगा और मुस्लिम लीग को क्या मिलेगा? क्या पाकिस्तान अपने पांवों पर खडा हो सकेगा? अंत में सोचा की इस पर लिकहें की कुछ गुंजाइश है।"
इसा प्रकार सालों के घोर श्रम के बाद पुस्तक तैयार हुई। इसके लिए अन्य पुस्तकालयों सहित पटना के 'श्री सच्च्चिदानंद लाइब्रेरी से बहुत मदद मिली। सरकार ने भी वे किताबें जेल में जाने दीं। पुस्तक लिखी जा रही है, यह समाचार जेल से छूटकर आनेवालों से बाहर के लोगों को मिल गया और प्रकाशित भी हो गया।
राजेन्द्र बाबू आगे लिखते हैं की " कमिश्नर आए और पुस्तक कहाँ तक पूरी हुई है, इस बाबत पूछा। वे बोले की करीब-करीब पूरी हो चुकी है। उनहोंने देखना चाहा। राजेन्द्र बाबू ने हस्त लिखित बहियाँ उन्हें थमा दीं। एक तो महीन अक्षर लिखने के आदी राजेन्द्र बाबू, दूसरी और जेल में कागज़ की कमी के कारण और भी महीन अक्षरों का प्रयोग। कोई नई बात सामने आने पर उसे यहाँ-वहाँ चस्पां कर देना। इसलिए किसी दूसरे के लिए पुस्तक पढ़ना काफी मुश्किल था। कमिश्नर ने पूछा की क्या किताब छपाने का इरादा है? वे झट से बोले की अगर सरकार इज्ज़ज़त देगी तो छपाई जाएगी। वे बोले की बगेर देखे सरकार इसकी इज्ज़ज़त नहीं देगी। हस्तलिखित जो हालत है, उसमें तो इसे देखना भी मुश्किल है। तैअप प्रति ही सरकार देख सकेगी। राजेन्द्र बाबू ने कहा की टैप कराने का साधन मेरे पास नहीं है, मगर सरकार सुविधा दे तो टैप हो सकता है।"
टैप कराने के लिए ३ तरीके राजेन्द्र बाबू ने सरकार को सुझाए-१), उनके सहायक श्री चक्रधर शरण को टैप कराने का मौका दें, जो उनके अक्षरों से बखूबी परिचित हैं। वे उस समय तक रिहा हो चुके थे, इसलिए वे जेल के अन्दर आ नही सकते थे। न सरकार राजेन्द्र बाबू को रिहा करेगी, न पुस्तक बाहर जा सकेगी। इसलिए उनको जेलर के दफ्तर में बैठ कर टैप करना होगा। टैप और हस्तलिखित प्रति जेलर के दफ्तर में ही छोड़ना होगा। २) सरकार इसके लिए किसी कर्मचारी को नियुक्त कर दे और इसके लिए जो खर्चा होगा, वे दे देंगे। '३) यदि कोई टैप करनेवाला कैदी हो तो उसे बांकीपुर जेल में बुला लिया जाए। राजेन्द्र बाबू को याद आया की जमाशेदा पुर युनियन लेबर के मंत्री श्री माइकेल जान टैप करना जानते हैं। इससे उन्हें टाईप कराने में काफी सुविधा हो जाएगी। सरकार के लिए यह बात अच्छी रहेगी की उससे पहले बाहर का कोई भी आदमी इसे देख नहीं पायेगा।
इसा तरह से माकेल जान पटना आए। संयोग की बात की किताब की टाइपिंग का काम १४ जून, १९४५ को पूरा हुआ और १५ जून १९४५ को राजेन्द्र बाबू जेल से रिहा हुए।
इस किताब के आनाकदों की जांच का काम दूसरे राजनीतिक कार्यकर्ता और विग्न्यानावेत्ता श्री मनीन्द्र कुमार घोष ने किया। बाहर आने पर किताब के बचे खुची अंश को पूरा किया गया। पुस्तक का पहला संसकरण जनवरी, १९४६ को "इंडिया दिवैदेद" के नाम से छापा और एक माह के भीतर ही इसकी सारी प्रतियाँ बिक गईं। बाद में 'खंडित भारत' के नाम इस इसका हिन्दी संसकरण भी आया। पाकिस्तान कीआयातियों में से ऐसा कोई भी नहीं निकला, जो किताब पर बहस करता या उसमें कोई भूल निकालता। बस वे अपने अनुयायियों को इस किताब को पढ़ने से मना करते। वे कहते की यह तो 'ज़हर कातिल' है। जो पढेगा, उसकी अक्ल मारी जायेगी। मगर इस घातक जहर का कोई बुद्धि सांगत जवाब उनके पास नहीं होता। इसके उलट पाकिस्तान के जनादाता मो। अली जिन्ना ने हिन्दू-मुसलमान दो राष्टों की बात छोड़कर कुछ वैसी ही बातें पाकिस्तान की संविधान सभा में ११ अगस्त, १९४७ को कही थी, जैसी की वे २०-२५ साल पहले पाकिस्तान का सपना देखने के लिए कहा करते थे। उनहोंने कहा था- " बहुसंख्यक और अल्प संख्यक समुदायों, हिन्दुओं, और मुसलमानों का अन्तर दूर हो जायेगा, क्योंकि आख़िर मुसलमानों में भी पठान, पंजाबी, शिया, सुन्नी, जैसे भेद तो हैं ही, जैसे की हिन्दुओं में ब्राहमण, वैशनव, खत्री, बंगाली, मद्रासी के भेद हैं। हिन्दुस्तान की आजादी हासिल कराने में ये ही भेद सबसे बड़े रोड थे और ये न होते तो हम बहुत पहले ही आज़ाद हो गए होते। दुनिया की कोई भी ताक़त किसी राष्ट्र को, ख़ास कर ४० करोड़ आबादीवाले राष्ट्र को बहुत समय तक गुलाम बना कर नही रख सकती। तुम्हारा कोई धर्म हो, तुम किसी जात-पांत के हो, इसका राज-काज से कोई नाता नहीं। हमें अपने सामें यही आदर्श रखना चाहिए और तब हम देखेंगे की अपने-अपने धर्म में आस्था रखते हुए हिन्दू हिन्दू रहेंगे और मुसलमान मुसलमा। और सभी देश के एक समान नागरिक होंगे, नागरिक की जगह पर न कोई हिन्दू होगा और न कोई मुसलमान।" अफसोस की जिन्ना साहब के भाषण के संग्रह में से भाषण का यह अंश हटा दिया गया गई।
-साभार, पुन्य स्मरण, मृत्युंजय प्रसाद
बेहतरीन आलेख, आभार.
ReplyDeleteबहुत अच्छी पोस्ट लिखी है आपने। बधाई।
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