अंग्रेजों के ज़माने में, कांग्रेस की सार्वजनिक सभाओं में खासा कर गांधी जी के दौरों पर, उनकी सभाओं में पुलिस के रिपोर्टर सादे लिबास में तैनात रहते थे, जो अपनी रिपोर्ट लिखकर सरकार को भेजते थे। बार-बार दो लोगो को ही रिपोर्ट लिखते देखकर लोग उनके बारे में समझ गए थे। फ़िर तो वे रिपोर्टर भी अपना काम छुपा कर नहीं करते थे। गांधी जी के र्तूफानी दौरों में सभी जगह पहुंचकर सारी रिपोर्ट लिखना उनके लिए सम्भव नहीं होता था। कठिन तो रहता ही था। कई बार तो राजेन्द्र बाबू उन्हें अपने लिए तय सवारी में जगह भी दे दिया करते थे। एक बार किसी के ध्यान दिलाने पर वे बोले की "मैं इन्हें भली-भाँती जानता हूँ। सरकार ने इन्हें हमारी सेवा के लिए भेजा है। इसलिए हम भी इनकी सुविधा का थोड़ा ख्याल कर लेते हैं। लेकिन ज़्यादातर तो ये ही हमारा काम कर देते हैं। आप भी इन्हें अपना कर्मचारी या कांग्रेस का नौकर मानिए। " सभी हंस पड़े। यह थी राजेन्द्र बाबू की भलमनसाहत।
यही बात अहमदाबाद में होती थी। वहां पुलिस के अफसर सत्याग्रह-आश्रम में आने-जानेवालों के बारे में रिपोर्ट दर्ज करते थे। उनमे से एक की ड्यूटी लगी थी अहमदाबाद रेलवे स्टेशन पर। जब कभी राजेन्द्र बाबू अहमदाबाद जाते, वह स्टेशन पर मिलता, स्वागत में आगे दौड़कर आता, बाहर जा कर सवारी ठीक कर देता, और आराम से उन्हें गाड़ी में बिठा देता। उसके जिम्मे सामान छोड़कर जाने में भी कोई दिक्कत न होती। एक बार उससे पूछने पर राजेन्द्र बाबू ने वही पुराना जवाब दिया की "सरकार ने उसे आपलोगों की सेवा कराने के लिए नियुक्त किया है। वह बेचारा कटकर रह गया। मगर बोलाताक्या? हंसते हुए बोला, "हाँ जी, हूँ जी, इन्हीं का सेवक हूँ।" दुश्मनों को भी मीठी छुरी से हलाल करना राजेन्द्र बाबू खूब जानते थे।
जानकारी के लिए आभार।
ReplyDeleteप्रेरक संस्मरण है। ऐसी हिम्मत और उदारता अब तो कहीं नजर नहीं आती।
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