छाम्माक्छाल्लो के एक मित्र हैं। 'मि जिन्ना' नाटक के दौरान उनसे पहचान हुई। बातों में बातें निकलती रहीं। बिहार और राजनीति की चर्चा होने पर देश के सबसे पहले राष्ट्रपति डाराजेन्द्र प्रसाद का ज़िक्र न हो, यह मुमकिन न था। जिन्ना' के दौरान उस समय कि परिस्थितियों पर चर्चा होतीं। एक आम बिहारी कायस्थ मानसिकता पर भी बात होती कि हर कायस्थ अपने को राजेन्द्र प्रसाद से नातेदारी जोड़ लेता है। नाटक के दौरान मित्र इतनी अन्दरून बातें बताते कि छाम्माकछाल्लो को हैरानी होती। और एक दिन बातों ही बातों में उन्होंने अपने सम्बन्ध का खुलासा किया कि डाराजेन्द्र प्रसाद उनके परनाना हैं। फ़िर यह अनुरोध आया कि आप इस बात को सार्वजनिक नहीं करेंगी। छाम्माक्छाल्लो को यह अच्छा लगा। उसे याद आया कि किसी कार्यक्रम में नसीरुद्दीन शाह के बेटे इमाद को अपना प्रोग्राम देना था। उसने ख़ास तौर पर गुजारिश की थी कि उसके परिचय में उसके माता-पिटा का नाम न शामिल किया जाए। यह कोई हेकडी नहीं, बल्कि अपनी कूवत अपने बूते बाहर लाने लाने का साहस है।
मित्र के सव्जन्य से हमें डाराजेन्द्र प्रसाद के ऊपर उनके बेटे श्री मृत्युंजय प्रसाद की लिखी किताब मिली- "पुन्य स्मरण" छाम्माकछाल्लो किताब पढ़ने के बाद इसके कुछ हिस्से आप सबके सामने लाने का लोभ रोक नहीं पा रही है। यह इसे लिए भी ज़रूरी है कि हम जाने अपने भूले-बिसरे नेताओं को, जिन्होंने इस देश को आजाद कराने में कितनी अहम् भुमिका निभाई थी। यह केवल उनकी तपस्या नहीं थी, उनके संग उनके पूरे परिवार की आहुति होती थी।
आचार्य शिव पूजन सहाय ने डाराजेन्द्र प्रसाद को बिहारियों का 'गृह देवता' कहा है। डा विश्वनात्न प्रसाद वर्मा ने उन्हें 'हिमालय के उत्तुंग शिखर की भाँती शीर्षस्थ स्थान' दिया है। डा श्रीरंजन सूरिदेव ने कहा है कि 'वे अपने सिद्धांत के लिए ही जिए और उसी के लिए मरे।'
आगे जब कभी छाम्माक्छाल्लो उनके बारे में लिखेगी, आप देखेंगे कि किस तरह यह आदमी अपनी काबिलियत के सहारे इस ऊंचाई तक बढ़ा। देश की सेवा निस्वार्थ भाव से की। राष्ट्रपति पड़ पाकार भी जिन्हें कभी कोई अभिमान न हुआ। नेहरू से सिद्धांत को लेकर हमेशा तनी रही। असल में नेहरू नही चाहते थे कि वे देश के पहले राष्ट्रपति बनें। यहाम तक कि १३ मई, १९६२ को राष्ट्रपति पड़ से अपनी सेवा निवृत्ति के १० माह पहले डाराजेन्द्र प्रसाद सख्त बीमार पड़े। बचने कि कोई उम्मीद न थी। उन्हें एक प्राइवेट नर्सिंग होम मी दाखिल कराया गया। नेहरू जी को लगा कि अब वे शायद बच नहीं पायेंगे। इसलिए उनहोंने एक और उनकी राजकीय सम्मान के स्साथ अंत्येष्टि के लिए आदेश दिए और दूसरी और उनके तात्कालिक उत्तराधिकारी की भी सोचने लगे। इन सबके साथ ही उनके दिमाग में उनके अंत्येष्टि स्थल की भी बात घूम रही थी। "From Curzon to Nehru and after" में लिखा है- " He (Nehru) did not want th e ceremony to be performed next to Rajghat, Gandhi's cremation ground, but he feared that MP's from Bihar, Prasad's home state would insist that this site to be chosen. He accordingly asked Home Minister Shastri to find a place as far from Rajghat as possible. This was a very delicate mossion and had to be performed secretly. Shashtri, accompanied by the Chief Commissioner of Delhi, Bhagwan Sahay, was driven by Dy. Commissioner sushitlal banerji, along the banks of Jamuna and chose a spot a couple of furlongs from Rajghat for the cremation.
Fortunately, Prasad survive the illness. The site, Shashtri selected for the President's cremation was used to cremate Shashtri in 1966 and became known as Vijayghat."
छाम्माक्छाल्लो की कोशिश होगी कि वह इस तरह के प्रसंग इस किताब से व अन्य किताबों से भी दे, ताकि आप देश की इस महान विभूति को और भी अच्छे से जान सकें।
A poet to a saint-
ReplyDeleteRabindranath Tagore wrote to Dr. Rajendra Prasad, "I feel assured in my mind that your personality will help to soothe the injured souls and bring peace and unity into an atmosphere of mistrust and chaos..."