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Friday, March 21, 2008

होली तो हो, पर ऎसी नहीं.

अभी मेरे घर के सामने होलिका- दहन की तैयारी चल रही है। मुंबई में शाम में ही होलिका दहन होता है, स्त्री -पुरूष, बच्चे सभी अग्नि कुंड की पूजा करते है, अबीर, और प्रसाद अर्पित करते हैं और कामना करते हैं कि बस ऐसे ही जीवन रंगमय बना रहे।
याद आती है अपने यहाँ की एक होली, सन् १९६७ की। मेरी बहन की शादी के बाद पहली होली थी॥ हम सभी तो बेहद छोटे थे, मगर जीजा जी शब्द की गुदगुदी से वाकिफ थे। जीजाजी आए हुए थे। हम सबकी उन्हें रंग में भिगोने, डुबोने की अपनी योजनाथी।
शाम में होलिका- दहन, जिसे सम्मत जलाना कहते हैं के लिए मोहल्ले के लडके लकडियाँ मांगने आए। दादी ने दो तीन गोड़हे (गोबर से बने लंबे आकार के उपले) दिए। लड़कों ने और माँगा। दादी ने दो-तीन और दिए। लडके 'और दो' पर अडे हुए थे, क्योंकि तब हमारे यहाँ गाय थी, और दादी उसके गोबर से उपले बनाती थीं। फ़िर से एक- दो देने के बावजूद वे नहीं माने। दादी ने अब और देने से मना कर दिया।
हमारी तरफ़ आधी रात में सम्मत जलाई जाती है। लड़कियों- स्त्रियों के लिए सम्मत जलना देखना वर्जित है। कारण? बहुत सी बातों की तरह इसका भी पता नहीं। कलकी होली की तैयारी करके और जीजाजी को कैसे तंग किया जाए, इन सबकी योजना बनाकर हम सो गए।
हमारे यहाँ काम करने चनिया दाई आती थी, मुंह अंधेरे ही। माँ ने दरवाजा खोल दिया और सो गई। पल भर भी न बीता होगा कि चनिया दाई की बडबड सुनाई दी-" आयें ये चाची, पिछुती (पिछवाडे का) दरवाजा आज बंद करना भूल गई थीं क्या?" माँ हदबदाकर उठीं - "भाई को बोला था, शायद भूल गया हो।" पर तबतक तो सुबह का उजाला भी होने लगा था और माजरा सारा साफ-साफ दिखाई देने लगा था। सम्मत जलानेवाले ने दादी के गोड़हे न देने का बदला चुकाया। पिछवाडे का दरवाजा, दोनों शौचालय के दरवाजे, गाय के घर को गिराने से बचाने के लिए टेक लगाई गई सीढ़ी, और भी जलावन के सामान, लकडी के टुकडे -सब सम्मत की भेंट चढ़ा आए थे।
होली की उमंग को तो पाला मार ही गया, सबसे अधिक शर्मिंदगी उठानी पडी माँ-बाबुजी को जीजाजी के सामने। वे क्या कहेंगे कि कैसे सब चोर हैं? उससे भी ज़्यादा, अब सुबह की दैनिक क्रिया से कैसे निवृत्त हुआ जाए? ओह! आज भी माँ-बाउजी का वो चेहरा नहीं भूलता। हम लोग तो बच्चे थे, जीजाजी भी एकदम नए दामाद थे, सो होली तो हुई, मगर जो ज़ख्म लगा, वह आज तक नहीं भरा।

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