Pages

Saturday, December 29, 2012

पैदा करना बेटियों को है रेयरेस्ट ऑफ रेयर जुर्म!


आज भी लोग बलात्कार के लिए ठहरा रहे हैं लड़कियों को दोषी।
कोई उनकी नज़रों को
कोई छोटे, खुले, तंग कपड़ों को
कोई घूँघट को,
कोई पर्दे को,
कोई साड़ी को,
कोई बिकनी को,
कोई दोस्ती को,
कोई प्यार को,
कोई उनके खुले व्यवहार को,
कोई उनके बंद जकड़न को,
कोई मोबाइल को
कोई नेट को।
अब हम थक गए हैं अपने लिए बचाव करते-कराते।
अब हम भी मानते हैं, हम हैं सबसे दोषी।
हे इस समाज के इतने महान विचारक,
नियामक
एक ही उपाय कर दें आपलोग,
निकाल दें ऐसा कानून,
जुर्म है बेटियों का पैदा होना,
उससे भी बड़ा जुर्म है उसके माँ-बाप का
उसे धरती पर लाने का दुस्साहस करना
आप हे हमारे माई-बाप!
घोषित कर दें पैदा करना बेटियों को
है रेयरेस्ट ऑफ रेयर जुर्म!
हम अभी गला घोंट आते हैं अपनी बेटियों का
साथ-साथ अपना भी।
क्या करेंगे हम जीवित रहकर,
जब हमारी बेटियाँ ही नहीं रहेंगी इस धरती पर।
रहो साफ, पाक, पवित्र बेटी-विहीन धरा पर,
लेकिन, यह धरती भी तो है बेटी ही,
कैसे रहोगे इस पर,
इसलिए बसेरा बनाओ कही और, किसी और खगोलीय दुनिया में,
चाँद, मंगल, शनि, बुध, सूरज- कहीं भी
बस, अब छोड़ दो हमें और हमें धारण करनेवाली धरा को।

Wednesday, December 19, 2012

देवी और बलात्कार


लड़की,
मत निकलो घर से बाहर।
देवियों की पूजावाला है यह देश।
हम बनाते है बड़ी-बड़ी मूर्तिया, देवी की-
सुंदर मुंह,
बड़े- बड़े वक्ष
मटर के दाने से उनके निप्पल,
भरे-भरे नितंब
जांघों के मध्य सुडौल चिकनाई।
उसके बाद ओढा देते हैं लाल-पीली साड़ी।
गाते हैं भजन- सिर हिला के, देह झूमा के।
लड़की,
तुम भी बड़ी होती हो इनही आकार-प्रकारों के बीच।
दिल्ली हो कि  बे- दिल
तुम हो महज एक मूर्ति।
गढ़ते हुए देखेंगे तुम्हारी एक-एक रेघ
फिर नोचेंगे, खाएँगे,
रोओगी, तुम्ही दागी जाओगी-
क्यों निकली थी बाहर?
क्यों पहने तंग कपड़े?
क्यों रखा मोबाइल?
लड़की!
बनी रहो देवी की मूर्ति भर
मूर्ति कभी आवाज नही करती,
बस होती रहती है दग्ध-विदग्ध!
नहीं कह पाती कि आ रही है उसे शर्म,
हो रही है वह असहज
अपने वक्ष और नितंब पर उनकी उँगलियाँ फिरते-पाते।
सुघड़ता के नाम पर यह कैसा बलात्कार?
लड़की- तुम भी देवी हो-
जीएमटी हो कंचक,
पूजी जाती हो सप्तमी से नवमी तक
लड़की-
कभी बन पाओगी मनुष्य?




Sunday, December 9, 2012

हम हमेशा शिवरानी - वे हमेशा प्रेमचंद


हे भगवान! आज मैं बहुत खुश हूँ कि मैं महुआ माजी की तरह खूबसूरत नही। हिन्दी जगत में खूबसूरत लेखिका होना मतलब- उसके चरित्र की धज्जियों का उड़ जाना है।  हिन्दी जगत में स्त्री का होना ही फांसी पर चढ़ा जानेवाला अपराध है। खूबसूरत लेखिका होना भयंकरतम अपराध है। इसकी सज़ा उसके चरित्र की खील -बखिया उधेड़ कर दी जा सकती है। ऐ औरत! एक तो तू हव्वा!। सारे फसादात की जड़! दूसरा फसाद- कि तू सुंदर भी है। यह ऊपरवाला भी- बहुत हरामी है। उसकी कमीनगी देखिये कि वह इस दो टके की औरत को दिमाग नाम की चीज़ भी दे देता है। अब भला कहिए तो! रूप दे दिया तो दे दिया। उससे हमारा मन सकूँ पाता है। आँखों को ठंढक पहुँचती है। दिल को राहत मिलती है। अगर वह पट गई तो देह की पोर-पोर खिल जाती है। नहीं भी पाती तो उसे गाली देकर, बदनाम करके हमारी जीभ और रूह सकून पाती है। ए कम अक्लों ! कितने खुश हैं हम यह स्थापित करते हुए कि ऐसों-ऐसों की अक्कल घुटने में होती है। घुटने पर साड़ी अच्छी लगती है। दिमाग को भी हमने घुटने पर देकर हमने उनकी इज्ज़त ही बढाई है। असल में उनके पास दिमाग तो होता ही नही! और ज़रूरत भी क्या है भला! वे रूपसी है, कामिनी हैं, दामिनी हैं, मतवारी हैं, छममकछल्लो हैं, छमिया हैं। ये सब हमारे रस-रंजन के लिए हैं। उनकी खुशकिस्मती कि हम उन्हें अपने साथ होने-सोने-खोने के लिए रख लेते हैं। अब इनकी यह मजाल कि लिखने भी लगें, बोलने भी लगें, हुंकारने भी लगें। दुर्गा-काली कैलेंडरों और शास्त्रों में अच्छी लगती हैं। जीवन में नही। महुआ हो कि कमलेश, गीता हो कि विभा- जो बोलेगी, भाड़ में जाएगी। यह भाड़ हमने बनाया है, इसमें हिंसा, कामुकता, रासलीला की आग हम सदा जला के रखते हैं। हम एक छींटे से अपने ही अन्य लोगों का भी खात्मा करने की ताकत रखते हैं, जिनकी नज़र में स्त्री सम्माननीय है। अरी ऐ औरत!  संभाल जा! तू मादा है, मादा रहेगी। मादा बनकर हमारे साथ रहेगी तो तेरे रूप पर तनिक दिमाग का दान भी कर देंगे।
इसलिए हे भगवान! अबतक अपनी कुरूपता से दुखी आज मैं बहुत खुश हूँ। पर, क्या सचमुच खुश हूँ? नहीं। रूप तो एक और विशेषण है। हमारे लिए तो औरत का होना ही अपराध है। हम औरत बनकर सेवाभाव से दासी बने रहें, तो किसी को कोई आपत्ति नही होगी, न किसी गोस्वामी जी की आत्मा में किसी प्रकाश का पुंज लहराएगा, न किसी के मन में किसी के प्रति राग-रंजन का अनिल या अनल बहराएगा। न किसी रण का बांका छलिया रूप अंधेरगर्दी मचाएगा। हमें कहा जाता है कि ना, ना, ना! हमारे विमर्श को नारीवादी रूप मत दीजिए। हम भी कहते हैं कि ना जी ना, हम तो अपने को रूप-अरूप से अलग-विलग रखकर सिर्फ और सिर्फ अपने कर्म और अपने लेखन और अपने प्रोफेशन पर ध्यान देते हैं। तब भी पेट में मरोड़ होने लगती है।
हे भगवान! अब हम तुमको गरिया रहे हैं। क्यों, तूने हमें बनाया? दिन-रात की इस इज़्ज़तपोशी के लिए! एक बार इन इज़्ज़तदानों को भी औरत बना दे और ऐसे ही विभूषणों से विभूषित कर दे। हमारी साड़ी, हमारी देह, हमारी नाक, हमारी आँख, हमारी चितवन, हमारी गढ़न! सब उनमें भर दे! सुनने दे उन्हें भी ये सब कुछ! फिर हम भी पूछें कि 'आब कहू, मोन  केहेन लगइए।"
वैसे हिन्दी में किसी की किसी भी उपलब्धि पर पड़ोसी के पेट में दर्द उठाना स्वाभाविक है। हमारी भिखारी और लोलुप प्रवृत्ति किसी को खुश, और परवान चढ़ा नही देख सकती। उसे यह रोने में अच्छा लगता है कि हिन्दी में पैसा नही, नाम नहीं, और जैसे ही किसी को यह मिलता है, हम उसके खिलाफ लामबंद होने लगते हैं। मतलब साफ है कि उसकी साड़ी कि उसकी कमीज मेरे से सफ़ेद कैसे? वह चाहे महुआ माजी हो या सुरेन्द्र वर्मा। हमें कभी भी अपने नाम, दाम, काम का चाँद नही चाहिए। न न न! हमें तो चाहिए, किसी महुआ को या किसी सुरेन्द्र वर्मा को नहीं। हमें मिले तो हमी सबसे लायक, कोई और है तो घनघोर नालायक!
महुआ का उपन्यास अच्छा नही है, तो उसे अपनी मौत मर जाने दीजिये। चोरी का है तो चोरी का इलज़ाम लगाये। उपन्यास के लिखने, घटिया या बढ़िया होने का उसके रूप या उसकी साड़ी -शृंगार से क्या वास्ता! वैसे हम भी ना! हम हिंदीवालों को सजने-सँवरने से भी बहुत परहेज है। एक मंत्री जी भी चार बार कपड़े बदलते हैं तो सुर्खियों में आ जाते हैं। टीवी उनके काम पर नही, उनके कपड़ों पर उतर आता है। हमारी यह फितरत है। महुआ कि कमलेश कि गीता कि विभा कि मैत्रेयी कि शीला कि मुन्नी कि इमरती कि जलेबी- हमारे काम पर नहीं, हमारे रूप पर जाइए। अगर हमने कुछ कर लिया तो हम शिवरानी हो जाएंगे, जिनकी कहानी प्रेमचंद ही लिखते थे। हमारे तो घर के मर्दों में भी इतनी ताब नही कि वे कहें कि हाँ जी हाँ! उनकी पत्नी एक शख्स नहीं, एक शख्सियत है। मन के भीतर इतना डर और कहने को इतने रणबांकुरे!

Saturday, December 8, 2012

मंडी- रंडी, देह -दुकान....!


कि हम हैं केवल और केवल-
मंडी- रंडी, देह -दुकान....!

सबकी मौत का एक मुअईन है
लेकिन मैं.....
मरती हूँ हर रात... (प्रतिमा सिन्हा)
(इसमें अपनी बात जोड़ रही हूँ- )

घर -बाहर, दुकान दफ्तर-चौराहा-पार्क
हर जगह हम हैं केवल मंडी- रंडी, देह -दुकान....!
हम कहते रहें की हमने उन्हें देखा
मित्रवत, पुत्रवत, भतृवत, मनुष्यवत....
लेकिन, जिन्हें हम ये सब कहते हैं, वे ही हमें बताते हैं-
कि हम हैं केवल और केवल-
मंडी- रंडी, देह -दुकान....!
अब हम भी कह रहे हैं, कि आओ और उपयोग करो- हमारा-
कि हम हैं केवल और केवल-
मंडी- रंडी, देह -दुकान....!
आँसू बहते हों तो पी जाओ।
दर्द होता हो तो निगल जाओ।
सर भिन्नाता हो तो उगल आओ अपने देह का दर्द, जहर, क्रोध -
अपनी ही माँद में।
कहीं और जाओगी तो सुनेगा नहीं कोई
अनहीन, नहीं, सुनहेगे सभी,
फिर हँसेंगे, तिरिछियाएंगे और
फिर फिर छेड़ेंगे धुन  की जंग-
कि हम हैं केवल और केवल-
मंडी- रंडी, देह -दुकान....!

Monday, December 3, 2012

राजेन्द्र बाबू का पत्र- पत्नी के नाम


राजेन्द्र बाबू का पत्र- पत्नी के नाम -साभार- पुन्य स्मरण- समर्पण- उनके जन्म दिन पर- तेरा तुझको सौंपत, क्या लागे है मोय?एक बार फिर से अपने ही इसी ब्लॉग से।

इस पत्र से पता चलता है कि तब के नेता देश के लिए कितने प्रतिबद्ध रहते थे। घर-परिवार , पैसे उनके लिए बाद की बातें होती थी। मूल भोजपुएरी में लिखा पत्र यहाँ प्रस्तुत है-
आशीरबाद,
आजकल हमनी का अच्छी तरह से बानी। उहाँ के खैर सलाह चाहीं, जे खुसी रहे। आगे एह तरह के हाल ना मिलला, एह से तबीयत अंदेसा में बातें। आगे फिर। पहले कुछ अपना मन के हाल खुलकर लीखे के चाहत बानीं। चाहीं कि तू मन दे के पढी के एह पर खूब बिचार करिह' और हमारा पास जवाब लिखिह''। सब केहू जाने ला कि हम बहुत पढली,  बहुत नाम भेल, एह से हम बहुत पैसा कमाएब। से केहू के इहे उमेद रहेला कि हमार पढ़ल-लिखल सब रुपया कमाय वास्ते बातें। तोहार का मन हवे से लीखिह्तू हमारा के सिरिफ रुपया कमाए वास्ते चाहेलू और कुनीओ काम वास्ते? लड़कपन से हमार मन रुपया कमाय से फिरि गेल बाटे और जब हमार पढे मे नाम भेलत' हम कबहीं ना उमेद कैनीं कि इ सब पैसा  कमाए वास्ते होत बाटे। एही से हम अब ऐसन बात तोहरा से पूछत बानी कि जे हम रुपया ना कमाईं, त' तू गरीबी से हमारा साथ गुजर कर लेबू ना? हमार- तोहार सम्बन्ध जिनगी भर वास्ते बातें। जे हम रुपया कमाईं तबो तू हमारे साथ रहबू, ना कमाईं, तबो तू हमारे साथ रहबू। बाक़ी हमरा ई पूछे के हवे कि जो ना हम रुपया कमाईं त' तोहरा कवनो तरह के तकलीफ होई कि नाहीं। हमार तबीयत रुपया कमाए से फ़िर गेल बातें। हम रुपया कमाए के नैखीं चाहत। तोहरा से एह बात के पूछत बानीं, कि ई बात तोहरा कइसन लागी? जो हम ना कमैब त' हमारा साथ गरीब का नाही रहे के होई- गरीबी खाना, गरीबी पहिनना, गरीब मन कर के रहे के होई। हम अपना मन मी सोचले बानीं कि हमारा कवनो तकलीफ ना होई। बाक़ी तोहरो मन के हाल जान लेवे के चाहीं। हमारा पूरा विश्वास बातें कि हमार इस्त्री सीताजी का नाही जवना हाल मे हम रहब, ओही हल में रहिहें- दुःख में, सुख में- हमारा साथ ही रहला के आपण धरम, आपण सुख, आपण खुसी जनिःहें । एह दुनिया में रुपया के लालच में लोग मराल जात बाते, जे गरीब बाटे सेहू मरत बाटे, जे धनी बाटे, सेहू मारत बाटे- फेर काहे के तकलीफ उठावे। जेकरा सबूर बाटे, से ही सुख से दिन काटत बाटे। सुख-दुःख केहू का रुपया कमैले और ना कमैले ना होला। करम में जे लिखल होला, से ही सब हो ला।
अब हम लीखे के चाहत बानी कि हम जे रुपया ना कमैब त' का करब। पहीले त' हम वकालत करे के खेयाल छोड़ देब, इमातेहान ना देब, वकालत ना करब, हम देस का काम करे में सब समय लगाइब। देस वास्ते रहना, देस वास्ते सोचना, देस वास्ते काम करना- ईहे हमार काम रही। अपना वास्ते ना सोचना, ना काम करना- पूरा साधू ऐसन रहे के। तोहरा से चाहे महतारी से चाहे और केहू से हम फरक ना रहब- घर ही रहब, बाक़ी रुपया ना कमैब। सन्यासी ना होखब, बाक़ी घरे रही के जे तरह से हो सकी, देस के सेवा करब। हम थोड़े दिन में घर आइब,त' सब बात कहब। ई चीठी और केहू से मत देखिह', बाक़ी बीचार के जवाब जहाँ तक जल्दी हो सके, लीखिह'। हम जवाब वास्ते बहुत फिकिर में रहब।
अधिक एह समय ना लीक्हब।
राजेन्द्र
आगे ई चीठी दस-बारह दीन से लीखले रहली हवे, बाक़ी भेजत ना रहली हवे। आज भेज देत बानी। हम जल्दीये घर आइब। हो सके टी' जवाब लीखिः', नाहीं टी' घर एल पर बात होई। चीठी केहू से देखिः' मत। - राजेन्द्र
पाता- राजेन्द्र प्रसाद, १८, मीरजापुर स्ट्रीट, कलकत्ता
(अब आप सोचें कि ऐसे पत्र को पाकर उनकी पत्नी के क्या विचार रहे होंगे और देश को पहला राष्ट्रपति देने में उनकी क्या भुमिका रही होगी?)