chhammakchhallokahis

रफ़्तार

Total Pageviews

छम्मकछल्लो की दुनिया में आप भी आइए.

Pages

www.hamarivani.com
|

Sunday, April 25, 2010

अब बेटियां बोझ नहीं!

छछम्मक्छल्लो को अभी तक याद है, वह उनकी दूसरी बेटी थी, जिसके जनम के समय वह वहां थी. पहली संतान भी बेटी थी. अभी भी कई घरों में दो बेटियां स्वीकार कर ली जाती थीं. वहां भी स्वीकार ली गईं कि साल भर बाद फिर से उनके मां बनने की खबर आई. समझ में आ गया कि इस तीसरी संतान का मकसद क्या है? मगर ऊपरवाले के मकसद को भला कौन पहचान पाया है? पता नहीं क्यों, ऐसेमाता-पिता के प्रति छम्मकछल्लो एक कटुता से भर जाती है और कह बैठती है कि तीसरी संतान भी बेटी ही हो! आखिर ऐसा क्या है जो बेटियां नहीं कर सकतीं. मगर लगा कि हां, बेटियां बेटों की तरह मां-बाप को एक निश्चिंतता नहीं दे सकतीं कि ऐ मेरे माता-पिता, हमारी तरफ से तुम बेफिक्र रहो. मुझे कभी कोई ताने नहीं देगा, कभी कोई राह चलते नहीं छेडेगा, कभी मेरे दहेज के लिए नहीं सोचना होगा, कभी मेरे कहीं आने-जाने से तुम्हें चिंतित नहीं होना पडेगा, कभी कुल का नाम रोशन करनेवाले के बारे में नहीं सोचना होगा, कभी मुखांगि देने वाला कौन होगा, इसके बारे में नहीं सोचना होगा, कभी रात आंखों में नहीं काटनी होगी कि इन बेटियों का पार घाट कैसे लगेगा?

छम्मकछल्लो क्या करे! यहां तीसरी संतान भी बेटी का ही रूप धरकर आ गई. पता नहीं, फिर क्या हुआ? अगर यह सुना कि तीनों अच्छे से पढ-लिख रही हैं. अभी दो की शादी भी हो गई. तीसरी पत्रकार है. कमाती है. कमाती पहले की दोनों भी थीं. मगर शादी के बाद छूट गया. बेटियां यह नहीं कह सकतीं कि मैया री, मुझसे पर तेरा हक तो मेरे ब्याह के बाद भी रहेगा. मैं पहले जैसी ही कम करती रहूंगी, उतनी ही आज़ाद भाव से विचरती रहूंगी.

पिता रिटायर हो गए. सभी जमा-पूंजी दोनों के ब्याह में खर्च हो गए. पेंशन मात्र हज़ार बारह सुअ की है. डेढ हज़ार तो मां के इलाज़ में ही खर्च हो जाते हैं. अब तीसरी ने कमान संभाली है. हर महीने निष्ठा पूर्वक घर पैसे भेजती है. मां का सीना गर्व से चौडा है. कहती है-" पहले बहुत लगता था कि तीन-तीन बेटियां हैं. अब नहीं लगता. अब तो मेरी ये तीनों ही मेरे आंख, नाक और काँच हैं. अभी तो यह छुटकी अहमारा खाना खर्चा चला रही है. तो अब बेटी और बेटे का क्या फर्क़!

मां की आंखों में झिलमिलाता गर्व छम्मकछल्लो को सुकून दे जाता है. फिर चिंता की एक रेख भी छोड जाता है. अभी ना! शादी के बाद? समाज अभी भी कहां यह अधिकार देता है कि शादी के बाद भी लडकियां अपने मां-बाप का ख्याल रख सकें. छम्मकछल्लो की मां भी कमाती थीं. उसके नाना मास्टर थे. तब मास्टरों के कमाई की आज के लोग सोच भी नहीं सकते थे. नाना को पेंशन नहीं मिलती थी. मामा पैसे नहीं भेजते थे. मां हर महीने मात्र 75 रुपए भेजती थी. इसके लिए भी हर माह वह इतना विरोध झेलती कि उस 75 रुपए के लिए उन्हें शायद 75 बार आंसू बहाने पडते थे. वह एक ही बात कहती कि क्या बेटी का अपने मां-बाप के लिए इतना भी कर सकने का अधिकार नहीं.

आज उनकी आंखों में तीन तीन बेटियों की मां होने का गर्व है और छम्मकछल्लो उस गर्व की ली हवा में बांसुरी की तरह बजना चाहती है. बस, भविष्य भी उन्हें यह गौरव देता रहे. आपके पास भी ऐसी बेटियां होंगी, उनकी ऐसी ही कहानियां होंगी. बांटिए ना उन्हें हम सबके साथ कि बेटियों के मा_बाप होने के गौरव से आकाश पट जाए, धरती हरी-भरी हो जाए, हवा में सुरीली खनक भर जाए! आखिए धान का बीज़ हैं बेटिया! सुनहली, खनकती, झनकती, फलसिद्धा बेटियां!  

8 comments:

दिनेशराय द्विवेदी said...

बेटियाँ बहुत कुछ करती हैं मां बाप और भाई बहनों के लिए। हम ही हैं जो उन से उन का हक छीन लेते हैं।

Amitraghat said...
This comment has been removed by the author.
Amitraghat said...

बेटियाँ घरों की जान होती हैं....बहुत अच्छी पोस्ट.."

Vibha Rani said...

सही कहा आपने दिनेश जी. अमित्राघट, बहुत बहुत धन्यवाद.

VICHAAR SHOONYA said...

कुछ ऐसा ही मैं भी लिख ही रहा था। एक पृष्ठभूमि भी बाँधी पर बाजी आप मार ले गयीं। इन दो लेखो में जो बात आपने सामने रखी है वही कुछ मेरे मन में भी था और अपने विचित्र तरीके से प्रकट भी करने वाला था पर अब लगता है की जिस बढ़िया तरीके से अपने इस विषय को प्रस्तुत किया है उसके समक्ष मैं मुह खोलूँगा तो मेरी मुर्खता ही झलकेगी। खैर बहुत बढ़िया लिखा । मेरे मन की बात बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत की । धन्यवाद।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

बेटियां तो बहुत कुछ कर सकती हैं...पर हम लोगों की मानसिकता ही नहीं बदलती...शादी के बाद आज भी बेटियां पराधीन सी हो जाती हैं...पर वक्त तेज़ी से बदल रहा है....अच्छी पोस्ट

Vibha Rani said...

विचार जी, ऐसा कुछ भी नहीं है. आप अपने तरीके से अपनी बात राखी सकते हैं. हम सभी यही करते हैं. लेख पसन्द आये, आभार! संगीता जी, वक़्त के बदलने से सबकुछ बदल रहा है, मगर जो अभी भी इस चक्की में पिस रही हैं, उन पर सोचना भी ज़रूरी है.

दीपशिखा वर्मा / DEEPSHIKHA VERMA said...

सच , बहुत अच्छा लगा पढ़ कर .
सब सच्चाई कि कलम से बात लिखी जाए , तो दिल तक उतरती है ...

"आखिए धान का बीज़ हैं बेटिया! सुनहली, खनकती, झनकती, फलसिद्धा बेटियां!"