पढिये छाम्माक्छाल्लो की एक कहानी -"हर समय एक रत्नाकर"। इसे साक्षात्कार पत्रिका में प्रकाशित किया गया था और अब नेट पत्रिका "रचनाकार" में छपी है। अपनी राय दें।
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वे गुमसुम से बैठे थे। बोलने की कोशिश में कंठ अवरूद्ध हो जा रहा था। क्या बोलें? कैसे बोलें? दूसरों के लिए तो इस बात का कोई महत्व ही नहीं, मगर इनके लिए? हृदय की समस्त गहराईयों से निकले भावों के उद्वेग में चारों ओर बेचैन चक्करें काटता मन।
मधुमक्खियों द्वारा दिया गया मधु तो बहुत स्वादिष्ट लगता है, मगर उसके डंक? कैसे विधाता ने सभी जीवों के भीतर अपनी जान बचाने के लिए उसी की देह में कोई न कोई उपाय रख छोड़ा है। यह दूसरी बात है कि उसका फल दूसरों को भी भुगतना पड़ता है। कभी-कभी तो किसी निरपराध को भी। लेकिन मधुमक्खियों को यह कैसे पता चले कि कौन अपराधी है और कौन निरपराध। उसके सामने तो सबसे बड़ा प्रश्न था - आपद्धर्म का, जिसके लिए विश्वामित्र ने कुत्ते का मांस खाया था, जिसके लिए महाभारत का महायुद्ध हुआ।
मुंबई में कबूतर असंख्य हैं... वीटी, दादर, गोरेगाँव स्टेशन, लोखंडवाला आदि में तो घोषित कबूतरख़ाना हैं। अघोषित हैं घर-घर में, खिड़कियों के कोनों में, गमलों में, फूलों के पौधों में - कहीं भी, किसी भी जगह, जहाँ एक दरार भर भी जगह मिल जाए। बिल्कुल यहाँ रहने वाले आदमियों की तरह ही - जहाँ भी बित्ते भर की छाँव मिल जाए...!
उनके यहाँ भी कबूतर ने अपना अड्डा बना लिया था। रसोईघर की खिड़की पर रखे गमले में दो अंडे भी दे दिए थे। कितनी मारामारी है मुंबई में जगह की। लोगों को अपने फूल-पत्ते का शौक भी खिड़कियों पर गमले रखकर करना पड़ता है... इतनी जगह ही नहीं... न कॉरीडोर, न पैसेज, न बालकनी... बस ले-देकर चारों ओर दीवारें और बीच में एक खिड़की, एक दरवाजा। बस जी, हो गया घर तैयार। अब इसमें आपको जितने पैसे लगाने हों, लगाइए.. दीवाल फोड़-फोड़कर लगाइए.. फर्श कोड-कोड कर लगाइए, जैसा पेंट चाहिए, कराइए, सनमाइका लगवाइए विनियर पर सेटल कीजिए, पाइनवुड पर काम कीजिए, आपका मन, आपकी सामर्थ्य!
पशु-पक्षियों के लिए इन सबकी कोई जरूरत नहीं। उन्हें तो बस सुराख भर जगह चाहिए। इंसान भी तो इसी सुराख भर जगह में रहते हैं मुंबई में - सपरिवार - उसी सुराख भर जगह में अपने पालतुओं को भी रखते हैं। वैसे पालतू कुत्तों के लिए तो उनके सोफासेट कि पलंग कि गोद कि गाल - सबकुछ एक समान.. उन लोगों को पूरी आजादी है सोफे पर बैठने के लिए कि उनके गाल चाटने के लिए।
कबूतरी ने गमले में अंडे दे दिए थे। गमले में तुलसी लगी हुई थी.. पति को हिदायत दी गई थी - तुलसी में नियमित पानी देने के लिए.. वे तुलसी में तो नहीं, तुलसी के पौधे में पानी दे देते.. पत्नी की आस्था व श्रद्धा के ठीक विपरीत उनकी अपनी आस्था व श्रद्धा थी, जिसमें ऐसी किसी भी भावना के लिए कोई स्थान नहीं था, जिसमें से तथाकथित धर्म या धर्म से संबंधित किसी कर्म-कांड की कोई गन्ध आ रही होती।
अब कबूतरी के अंडे दे देने के बाद उन्होंने तुलसी में पानी देना बन्द कर दिया। मायके गई हुई पत्नी फोन पर बार-बार याद दिलाती रहती। इस बार की ताकीद पर इतना भर ही कहा - “यार! तुम्हारा तुलसी का पौधा फिर कभी, कहीं से भी आ जाएगा, लग जाएगा, मगर यहाँ एक जीव को अस्तित्व में लाने की प्रक्रिया चल रही है। तुम खुद भी एक औरत हो, तुम्हें तो स्वयं समझ लेना चाहिए..।“
पत्नी ने व्यर्थ की बहस से बचने के लिए प्रसंग को मोड दिया.. उसे पता था कि पत्नी रूपी जीव के अलावे उन्हें सभी जीवों पर बड़ी दया, बड़ा स्नेह, बड़ा अपनत्व उमड़ता है। और इसका पता उन्हें भी अच्छी तरह से था। पत्नी का मन एक बार किया कि कहें कि “यह पौधा.. यह भी तो सजीव ही है, काठ की कुर्सी कि बेंत की छड़ी की तरह निर्जीव नहीं.. एक को बचाने के लिए दूसरे की हत्या..।“ मगर वह चुप ही रही - तर्क को कुतर्क में बदलने की अनिच्छा से बचती हुई।
चाय बनाते समय, पानी लेते समय अब वे जरूरत से अधिक समय तक रसोई में खड़े रह जाते। कबूतरी देह फुलाए अंडे पर बैठी रहती। उसकी पलकें ऊपर से दिखाई नहीं पड़ती, मगर उसकी पलकों के मिटमिटाने से उसकी मसूर दाल जैसी गोल-गोल आँखें मछली की आँख जैसी दिखाई पड़ती.. गोल-गोल। वैसे तो आँखों में कोई हरकत सी नहीं लगती, मगर पलकों के मिटमिटाने के समय उसकी पलकों का पता चलता। तब लगता कि वह जगी हुई है, सचेष्ट, सप्राण, चाक-चौबस्त।
एक दिन अंडे में से चूजा निकल आया.. गुलाबी-गुलाबी.. अत्यन्त कोमल, निरीह, देह पर रोएं नहीं.. उन्हें एकदम से अपने बेटे के जन्म का पहला दिन याद आ गया - ऐसा ही नर्म, कोमल, गुलाबी थ वह भी। पूरी रात बेटे को अपने सीने से लगाए रहे - उसकी नर्म देह को अपने में महसूस करते, उसके कोमल जीव को अपने सीने की ऊष्मा पहुँचाते।
उनके मन में प्रसन्नता की लहर दौड़ गई - सृष्टि की इस महिमा पर, नए प्राण के इस संसार में आने के स्वागत में.. वे दो-तीन छोटी-छोटी कटोरियाँ ले आए.. खिड़की पर गमले में उन कटोरियों में दाल-चावल और पानी रखने लगे।.. कबूतरी पर उनकी नजर इतनी स्नेहासिक्त होती, जैसे किसी नव-प्रसूता पर लोगों की होती है.. जैसे अपनी पत्नी पर हुई थी, जब उसने इनके बेटे को जन्म दिया था.. इसी तरह तो उन्होंने देख- भाल की थी सद्यःप्रसूता पत्नी की, नवजात बेटे की।.. अन्य पुरुषों को तो नवजात शिशु को छूने में ही डर लगता है। मगर उन्होंने तो शिशु के लेबर रूम से अपने रूम में आते ही सबसे पहले उसे अपनी गोद में जकड़ लिया। झपटकर नर्स की गोद से अपनी गोद में लेकर लगे उसे चूमने - उसकी आँखें, उसकी पलकें, उसके गाल। नर्स को बोलना पड़ा -“तुरंत का जन्मा है.. इन्फेक्शन लग सकता है..। “ ओह, कितना सुख होता है सृष्टि के निर्माण में, निर्माण को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया में, उसका साझीदार बनने में।
तुलसी सूख गई। मगर दोनों चूज़े अब धीरे-धीरे बढ़ने लगे। नर कबूतर भी बीच-बीच में आता, कबूतरी के साथ बैठता.. दोनों की नजरें मिलतीं, जैसे आपस में वे दोनों कुछ बतिया रहे हों। कबूतरी जरा हटकर बैठ जाती। अंडे से निकलते दोनों बच्चे और अच्छी तरह से दिखाई पड़ने लगते। पिता को जैसे खुशी होती.. वह पंख फड़फड़ा कर फिर उड़ जाता.. फिर आता और कबूतरी की चोंच में कुछ डाल जाता.. संभवतः कुछ दाने.. कबूतरी फिर अपनी जगह पर आ जाती.. फिर पंख पसार कर उसमें अपने बच्चे को ढंक लेती.. उन्हें पत्नी याद आ जाती। वह भी बेटे को अपने अंक में भरकर बाँहों के घेरे में लेकर सोती थी.. स्वयं उन्हें कितनी अधिक संतुष्टि मिली थी, जब वे बेटे के जनम की पहली रात्रि में उसे अपनी गोद में लेकर सोए थे। कितनी दीप्ति लिखी रहती थी पत्नी के चेहरे पर.. कितना संतोष है इस माता कबूतरी के चेहरे पर। कितनी समानता है स्त्री और कबूतरी में! कबूतरी ही क्यों किसी भी मादा में.. धरती पर के किसी भी जीव की किसी भी माता में। अन्य लोक का तो उन्हें पता नहीं, मगर वे आश्वस्त थे कि यदि किसी दूसरे लोक पर भी जीव हुए तो वहाँ भी यही मातृत्व भाव मिलेगा। प्रेम और मातृत्व - दोनों की साझेदारी में समान अभिव्यक्ति, समान व्यवहार, समान सुख - कितनी एक सी होती हैं सभी मादाएं! पुरुष भी चाहें तो अपने भीतर इस मादा-भाव का अनुभव कर सकते हैं, जैसे आज वे कर रहे हैं।
लेकिन वे तो घोषित पुरुष हैं.. प्रकृति से ही पुरुष योनी में जन्मे हुए.. तथाकथित सुदृढ़, मजबूत, बलिष्ठ। उन्हें क्यों ऐसा स्त्रीवत अनुभव होने लगा.. उस दिन सड़क पर देखा - एक कुतिया अपने पिल्लों को दूध पिला रही थी.. वे ठिठक गए.. मुग्ध भाव से उसे देखते रहे..। उस दिन किसी से मिलने जा रहे थे। वहाँ की इमारत की सीढ़ियाँ चढ़ते वक्त सीढ़ी के एक कोने पर नजर गई। एक बिल्ली ने चार बच्चे दिए हुए थे। चारों बच्चे उसके दूध में मुंह घुसाए पड़े थे और बिल्ली एकदम आराम से ढीले बदन से लेटी हुई थी। मगर हर आहट पर उतनी ही चौकन्नी, उतनी ही चौकस - अपने बच्चों की रक्षा के लिए हरदम तैयार! वे वहां भी दो मिनट रुककर उसे देखने लगे.. थोड़ी देर बाद लगा, जैसे उनके अपने हृदय से कोई स्रोतस्विनी फूट पडी हो.. वे तनिक नर्वस भी हो गए.. अपनी ओर भी देखा.. तनिक भयभीत, जरा आशंकित.. फिर वे मुस्कुरा पड़े।
“जन्म से पहले हर कोई स्त्री ही होता है। धरती पर आने के बाद ही हमारा विभेदीकरण नर या मादा में होता है..“
“मतलब? आपका कहना यह है कि सभी भ्रूण मादा ही होते हैं और प्रसव-काल में वह मादा भ्रूण मादा से नर शिशु में बदल जाता है। यह कोई विज्ञान है या उलटबाँसी?“
“नहीं, नहीं, चमत्कार!“ उसके चेहरे पर शैतानी झलकने लगी।
“तो ऐसे-ऐसे चमत्कार को तो दूर से ही नमस्कार भई!“
“अरे नहीं भई, कोई चमत्कार-वमत्कार नहीं है.. भ्रूण का लिंग भी नहीं बदलता है.. बस नजरिए की बात है। देखिए, हम सभी नौ महीने तक एक स्त्री की देह का एक अभिन्न अंग बनकर रहते ह.. जब तक हम एक स्त्री की देह का हिस्सा हैं, तब तक तो स्त्री ही हुए कि नहीं? यह सृष्टि है और यही सृष्टि का नियम।“
वही सृष्टि इतनी क्रूर क्यों हो जाती है! इतनी हिंसा, इतना आक्रोश क्यों भरा रहता है सभी के भीतर? मनुष्य तो मनुष्य, पशु-पक्षियों में भी..!
मनुष्यों की बात तो नहीं कही जा सकती, मगर पशु-पक्षी तो आपद्धर्म में ही ऐसा वैसा कुछ करते हैं.. जैसे भूख लगने पर ही शेर शिकार करता है, पूँछ के दबने पर ही साँप पलटकर काटता है, जैसे छत्ते पर हमला होने के कारण ही इन मधुमक्खियों ने...। सभी अपनी जान बचाने की कोशिश में..।
मगर ये कबूतर? ये तो उन्हें कोई नुकसान पहुँचाने नहीं गए थे न?
“अब ये कबूतर। उन्हें कैसे मालूम कि...? आपने यह तो सुना ही होगा कि करे कोई, भरे कोई.. पूरी दुनिया में यही चल रहा है। देखिए न, पता नहीं किसके दिमाग में कौन सा फितूर समाया कि किसी ने उसका छत्ता काटा कि यूँ ही किसी बच्चे ने शैतानी से पत्थर या ढेले फेंके कि.. सारी मधुमक्खियाँ उड़कर सभी घरों की खिड़कियों पर भन-भन करने लगी।“
उनका गला भर्रा आया -“उस समय ये दोनों नर-मादा अपने चूजों के मुंह में कुछ दाने दे रहे थे कि.. मधुमक्खियों के हमले से वे दोनों तो उड सकते थे, सो उड गए वे। मगर ये दोनों नन्हे-नन्हे बच्चे.. कितने निर्बल, कितने असहाय, कितने पराश्रित! अभी तो उनके पंख निकल ही रहे थे, नन्हें-नन्हें पंख..“
बेकल, बेआसरा बनीं बदहवास उड़ती मधुमक्खियाँ अपने ठौर-ठिकाने के लिए चकरघिन्नी काट रही थी.. एक जगह से उजाड़े जाने के बाद अब दूसरी जगह के लिए विस्थापित.. मनुष्य भी तो जैसे सुन्न और हृदयहीन हो जाते हैं, ऐसी स्थिति में.. मधुमक्खियों के आक्रमण से विषण्ण और अचानक आए इस आपात संकट से बचने के प्रयास में दोनों बच्चों की बेचैनी! जान-प्राण बचाने की अकुलाहट - दोनों ओर से असहाय स्थिति - दोनों ही ओर से..। दोनों ही ओर से अपना-अपना आपद्धर्म और इसमें बलि चढ़ गए ये दोनों शिशु - पाखी..। बेचैन होते, मधुमक्खियों से खुद को बचाने की छटपटाहट दोनों चूज़ों में.. जान बचाने की इस कोशिश में एक चूज़े ने अपने उगते पंख फड़फड़ाए। उड़ने की कोशिश में लगा एक चूजा खूब जोर से फड़फड़ाया। पूरे पंख के अभाव में वह खुद को संभाल सकने में एकदम असमर्थ हो गया। नतीजा, सीधे खिड़की से नीचे.. चार मंजिल से गिरने के बाद तो इंसानों के लिए भी बचने की संभावना क्षीणप्राय रहती है, इस छोटे से बच्चे के लिए तो.. इस हड़बड़ी, धड़फड़ी में दूसरे चूज़े ने भी घबरा कर इधर-उधर भागने की कोशिश की होगी कि अपनी जान बचाकर भागती मधुमक्खियों ने उसे अपने सामने की बाधा माना होगा और मार दिए डंक पर डंक.. बिचारे चूज़े को तो खुद को संभालने का मौका भी नहीं मिला। वह उसी गमले में घुटकर ..“ कहते-कहते उनका गला अवरूद्ध हो गया। आँखें पनिया गईं। इस स्थिति का सामना करने से बचने के लिए वे बाथरूम में घुस गए।
लगभग दो घंटे के बाद मधुमक्खियों का तथाकथित उपद्रव थमा। वे सब किसी नए ठिकाने की तलाश में निकल गए.. शाम का अंधेरा भी पसर गया। पसरती सांझ के अंधेरे में घर इतना शांत लग रहा था, जैसे सचमुच ही किसी की मौत..।
“आप बैठें। मैं आफ लिए चाय बना लाता हूँ.. कड़क चाहिए कि माइल्ड .. चीनी चाहिए या? किचन में निर्जन चुप्पी पसरी हुई थी। न तो उनकी आवाज, न गैस-लाइटर की चिट-चिट, न बर्तनों की खट-पट..“ ओह! उसने भी तो हद ही कर दी है। आदमी लोग रसोई-पानी में काम में इतने अभ्यस्त होते हैं क्या? चाय पानी कोई जरूरी है क्या?
“क्या हुआ? रहने दीजिए। चाय-वाय पीने का मन नहीं है.. आइए, बैठिए, गप-शप करें।“
“सचमुच चाय नहीं..?“
“सचमुच।“
उन्हें जैसे आश्वस्ति का अनुभव हुआ..।
“पता है आपको कि मैं क्यों स्वर-विहीन, क्रिया-विहीन हो गया था? आफ साथ ऊपर आ रहा था कि खिड़की से नीचे गिरे एक बच्चे को देख लिया था.. आपका मन खराब ना हो जाए, यह सोच आपको दिखाया नहीं..। और अभी गमले में देखा कि.. यह दूसरा भी.. ओह, कैसे ये दोनों जान बचाने के लिए छटपटाए होंगे.. मेरे साथ इनकी दोस्ती हो रही थी.. मेरे उधर जाने पर प्रतिसाद भी देने लगे थे.. आँखों से, पंखों से.. उसकी माँ की नजरों में भी कोई भय नहीं रहता.. एक-एक पल, एक-एक दिन के उसके विकास का साक्षी हूँ मैं.. उड़कर चले गए रहते तो तसल्ली हुई रहती कि अपने-अपने ठौर पर गए - अपनी नई जिंदगी शुरू करने के लिए, नव विहान, नव-निर्माण के लिए, मगर.. खिलने से पहले ही..।
“छोड़िए यह सब.. ये सब तो दुनिया के दस्तूर हैं.. देखिए, हजारों-लाखों लोग भूकम्प, बाढ़, बम विस्फोट आदि में अचानक चले जाते हैं.. यह तो एक कबूतर..।“
“ऐसा मत कहिए। मैं सह नहीं सकूँगा। सच पूछिए तो मुझे अच्छी नहीं लगी आपकी यह बात। अरे, कबूतर हुआ तो क्या उनके अपने भीतर कोई स्पंदन नहीं है? जीवन नहीं है? उन लोगों के जीवन की कोई कीमत नहीं है? हम लोग भी अपने भाव खत्म कर लें, क्योंकि वह एक छोटा सा पक्षी है, नगण्य - जिसका जीना-मरना हमलोगों की चिन्ता का बायस नहीं?“
“ओके देन! हम लोग अपनी बातें रहने देते हैं। आइए, इन्हीं की बातें करें।“
“नहीं, नहीं काम कर लीजिए पहले।“ दिल पर दिमाग ने कब्जा जमाने की कोशिश तो की, मगर मन की चैतन्यता पर जगह-जगह अन्यमनस्कता हावी होती रही.. और फिर फोन, फिर फोन। फोन पर ही रोना.. फोन पर ही प्रलाप.. फोन पर ही एकालाप..
“मा निषाद प्रतिष्ठा त्वमगमय शाश्वतीः समाः
यत्क्रौंच मिथुना देकमवधिः काम-मोहितम्!“
एक मिथुनरत क्रौंच की हत्या ने रत्नाकर को वाल्मीकि बना दिया और सीता के लिए, उसके लव-कुश के लिए उनके हृदय के सारे अलिन्द और निलय सुरक्षित हो गए..। हल चलाते वक्त सीत से निकली सीता के लिए राजा जनक, यज्ञ से निकली याज्ञसेनी द्रौपदी के लिए द्रुपद पिता बन गए। अनाथ शकुन्तला के लिए ऋषि कण्व माता-पिता दोनों बन गए। कहाँ है वे सभी नारीवादिनी, जो कहती हैं कि मातृत्व हमपर आरोपित की गई प्रक्रिया है! हँसिए। यह हँसी का विषय है..। प्रकृति को नहीं पता था कि कालान्तर में मातृत्व-भाव के लिए ऐसी बातें की जाएंगी.. लेकिन मातृत्व क्या केवल शारीरिक स्थिति है? या फिर उससे बढ़कर मानसिक? प्रकृति रचित एक पुरूष में यह मातृत्व भाव, ऐसी करूणा, इतनी कोमलता क्यों? कहाँ से आई? पुरूष होकर हृदय में संचारित यह मातृत्व-भाव.. मातृवत उन्होंने इन सभी शिशुओं को अपनी-अपनी गोद में लिया, हृदय में प्रेम की भागीरथी की अजस्त्र धार फूटी.. माता जनक, माता द्रुपद, माता कण्व, माता वे स्वयं..।
“मुझे चैन नहीं मिल रहा है। किचन की ओर मेरा जाना बन्द हो गया है.. चौकीदार को बुलवाकर गमलेवाले बच्चे को हटवा तो दिया, मगर अब देखिए कि अहले - भोर से ही उसके माँ-बाप दोनों चक्कर काट रहे हैं। बार-बार दोनों खिड़की पर आ रहे हैं, जा रहे हैं.. कभी गमले की ओर निहारते हैं.. तो कभी पूरी खिड़की को फटी-फटी आँखों से देखते हैं.. पिता को तो जैसे साँप सूँघ गया है - आतंकित, हताश, खोया-खोया और माँ? अपनी बेचैनी में कभी गमला में चोंच मारती है तो कभी गमले के आगे-पीछे, ऊपर-नीचे बच्चे को खोजती है.. कभी नर कबूतर की ओर ताकती है, जैसे कह रही हो- “ये क्या हो गया?“ कभी खिड़की के ग्रिल पर बैठकर पूरे किचन के आर-पार ताकती है कि बच्चे कहीं घर के भीतर तो नहीं छुप गए हैं..। उसकी आँखों में दुख, हताशा और पीड़ा के इतने गहरे भाव हैं कि मुझे ताकत नहीं मिल रही है उसका सामना करने की।“
“कबूतर कभी उसके पास आता है, कभी वह भी कबूतरी के साथ अपने बच्चे को खोजने लगता है.. उफ़! कैसे बयान करूँ इन दोनों की तकलीफ, खासकर माँ की।“
“आप न तो नारी हैं, न नारीवादी.. न कामी, न भोगी.. तब क्यों इतने दुखी हो रहे हैं? लोग तो कबूतरों को पकड़कर खा जाते हैं.. मृत्यु तो सनातन सत्य..।“
“मुझे ये सब मत पढ़ाइए.. बराए-मेहरबानी.. मैं देख रहा हूं उसका कातर, उदास मुंह। महसूस कर रहा हूं उन दोनों के कलेजे का क्रन्दन और आप मुझे गीता का पाठ पढा..।“ उनका गला फिर से भर्रा गया, फिर से एक दीर्घ मौन चारों ओर पसर गया.. लेकिन आँखों के आंसू और कलेजे का कोर कोर बोल रहा था..
“मा निषाद..“
हे रत्नाकर! एक क्रौंच-वध को देखकर तुम वाल्मीकि बन गए..। कहाँ-कहाँ, कितने-कितने वध किस-किस रूप में इस धरती पर हो रहे हैं..। इंसानों की तो बात ही छोड दो.. मनुष्य की अंधी लालच और मद के शिकार बनते हैं ये पशु-पक्षी, पेड़-पौधे..। आओ रत्नाकर, आओ! सभी के हृदय में समा जाओ। बड़ी जरूरत है तुम्हारी इस धरती पर..।
“दारू पी रहा हूं.. चार पैग सुटक गया हूँ, फिर भी आँखों के सामने से न तो बच्चे गायब हो पाए हैं और न ही कबूतरों का आना ही रुका है। .. मगर अभी तक अपनी सन्तान के लिए उन दोनों की तलाश खत्म नहीं हुई है। कहिए तो? क्या करूँ मैं? क्यों मेरा कलेजा ऐसा है?“
“स्त्रियों की तरह रोना पुरुषों को शोभा..“
“तो कह दीजिए पूरी पृथ्वी को, कि स्त्री होना कोई गाली नहीं है और यदि यह गाली है, तो यह संपूर्ण पृथ्वी ही गाली है, हमलोगों की माँएं गालियाँ हैं, हमलोगों की रचना भी गालियाँ हैं।“ कोमल अनुभूतियों के समन्दर में उभ-चुभ होता उनका मन प्रलाप कर रहा था..।“
“मा निषाद..“
क्रौंच का मिथुन आरंभ हो चुका है.. नए सृजन के लिए, नए व्यवहार के लिए.. नव किसलय, नव पल्लव फूट रहे हैं, नवीन काम-गंध से वातावरण मोहित हो रहा है.. नवीन.. सबकुछ नवीन.. आह! सृजन में कितना सुख है.. रत्नाकर का सृजन वाल्मीकि में.. डाकू से साधु में.. संहारकर्ता से सृजनकर्ता में.. आओ रत्नाकर, रचो रत्नाकर, रसो रत्नाकर, बसो रत्नाकर.. हर समय एक रत्नाकर।
1 comment:
kya baat hai
waah waah
____________lekhan me dabangta ki mahak aur paripoornata ki chamak mubaraq ho__________
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