छाम्मक्छाल्लो की एक बुआ थी. खूब पूजा-पाठ वाली. शादी हुई. संयोग ऐसा कि फूफा भी उतने ही धार्मिक विचारोंवाले थे. बुआ की निभ गई. खूब निभी. ऐसी कि बस पूछें मत.
फूफा अक्सर छाम्मक्छाल्लो के घर आते. घर के वे दामाद कहलाते. सो उसी तरह से उनकी आव-भगत छाम्मक्छाल्लो के माता-पिता करते. बुआ भी जब जब मायके आती, छाम्मक्छाल्लो के घर ज़रूर आती. उनका चन्दन टीका,, गले में कंठी छाम्मक्छाल्लो व् उसकी अन्य बहनों को बड़ा आकर्षित करता. बुआ तब शायद लहसुन-प्याज खाती थीं. बाद में वह भी छोड़ दिया. फूफा ने भी. उनकी भक्ति के किस्से शहर भर में ही नहीं, शहर के बाहर भी मशहूर थे. बाद में उन दोनों ने मिल कर अपने शहर में एक मंदिर भी बनवाया- राम-सीता का.
बुआ के पास पैसे खूब थे, मगर छाम्मक्छाल्लो को याद नहीं आता की वे बच्चों के लिए कही कुछ ले कर आई हों. सो जब वे आतीं, सभी बच्चे उन्हें प्रणाम करते और अपने-अपने धंधे पर निकल जाते. छाम्मक्छाल्लो माँ के पास देर तक बैठी रहती और उनके किस्से सुनती रहती.
छाम्मक्छाल्लो को बुआ तो अच्छी लगती मगर फूफा नहीं. इसकी वज़ह थी. छाम्मक्छाल्लो की बड़ी बहन शादी करने लायक हो गई थी. छाम्मक्छाल्लो का परिवार पढा-लिखाथा. माँ-बाउजी दोनों शिक्षक थे, लिहाजा, बच्चे भी पढ़ रहे थे. माँ-बाउजी के पास पैसे नहीं थे, मगर शिक्षा थी. फूफा के पास पैसे थे, नाम था, मंदिर के कारण, सो माँ-बाउजी जब तब उनसे बहन के लिए किसी लडके को खोज देने की बात करते. फूफा माँ- बाउजी की हैसियत आंकते और कहते- "फलानी जगह पर एक लड़का है. मिडल पास है, कपडे की दूकान पर बैठता है." या फलाने जगह पर एक लड़का है, गुड की आधात में काम करता अहै, चार सौ कमाता है. छाम्मक्छाल्लो सुन कर इतना चिढ जाती कि बाद में कहती माँ से कि वह बुआ-फूफा की आव-भगत क्यों करती है? खैर, बाद में दीदी का ब्याह प्रोफेसर से हुआ.
यही बुआ- फूफा की अपनी प्रेम कथा है. दोनों में अगाध प्रेम था. अपने बुढापे में बुआ बीमार रहने लगी. जीवन के अंतिम समय में वे बहुत बीमार थीं. जब उनके जाने का समय आया तब उनहोंने खुद बेटे से कहा कि वे उन्हें कमरे से निकाल कर आँगन में तुलसी चौरे के पास सुला दें. जब तक यह इंतजाम किया गया और बुआ को आँगन में लाया गया, तबतक वे अचेत हो चुकी थीं. किसी तरह बहुओं ने उन्हें गंगाजल पिलाया. उनहोंने अंतिम सांस ली. घर में कुहराम मच गया.
बुआ का एक छोटा सा पोता था. वह बाहर भागा अपने दादा को दादी की खबर सुनाने. वह दौडा उनके पास और बोला- "दादा, दादा, दादी मर गईं" फूफा बाहर से भीतर आये. आँगन में तुलसी चौरे के पास बुआ का पार्थिव शरीर रखा था. बहुएँ व् अन्य सभी रो रही थीं. फूफा चुपचाप बुआ तक चल कर आये, उनके पास बैठे, और उनका हाथ पाकर कर बोले- "मुझे छोड़ कर जा रही हो?" और यह कहा कर वहीं लुढ़क गए. पूरे शहर में शोर हो गया. शहर की तो छोड़ ही दे, किन-किन गाँवों और शहरों से लोग उनके दरसन के लिए आये. बड़ी धूम-धाम से दोनों कि शवयात्रा एक साथ निकाली गई, अगल-बगल चिता जली. बाद में उनके बेटों ने उनके नाम से एक और मंदिर बनवाया- फिर से राम-सीता. का.
छाम्मक्छाल्लो के साथ-साथ आप भी कह सकते हैं कि प्रेम कि यह अद्भुत मिसाल है. ताज महल यहाँ भी बना, मगर प्रेम के शिवाले के रूप में नहीं, भक्ति के रूप में. प्रेम भी अपने अनंतिम रूप में भक्ति ही हो जाता है. छाम्मक्छाल्लो को आज भी यह वाक़या एक मिथ के रूप में लगता है. उसे सिर्फ लगता है तो यही कि मंदिर तो बुआ-फूफा ने बनवाया ही था. उनके नाम पर बाद में मंदिर के बदले कोई स्कूल या अस्पताल बनता तो उनके प्रेम को और भी विस्तार मिलता. वह सब तो नहीं बना, मगर प्रेम का ताज महल तो बन ही गया-भले मंदिर के रूप में ही सही.
4 comments:
रोचक और सुन्दर प्रसंग है आभार्
रोचक .... वैसे ये छम्मक छल्लो कौन है :-)
achha nahin laga...bahut achha laga
utkrisht laga
BADHAI
हम आपकी बात परे पूरा यकीन करते हैं. ऐसा होता था. लेकिन इस ज़माने में ऐसा होना लगभग असंभव ही है
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